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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


विद्याधरी अलाव के सामने बैठी हुई थी कि इतने में पंडित श्रीधर ने द्वार खटखटाया। विद्याधरी को काटो, तो लहू नहीं। उसने उठकर द्वार खोल दिया और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। पंडितजी ने बड़े आश्चर्य से कमरे में निगाह दौड़ायी, पर रहस्य कुछ समझ में न आया। पूछा, किवाड़ बंद करके क्या हो रहा है? विद्याधरी ने उत्तर न दिया। तब पंडितजी ने छड़ी उठा ली, और अलाव को कुरेदा तो कंगन निकल आया। उसका सम्पूर्णतः रूपांतर हो गया था। न वह चमक थी, न वह रंग, न वह आकार। घबराकर बोले–विद्याधरी, तुम्हारी बुद्धि कहाँ है?

विद्याधरी–भ्रष्ट हो गई है।

पंडितजी–इस कंगन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?

विद्याधरी–इसने मेरे हृदय में आग लगा रखी थी।

पंडितजी–ऐसी अमूल्य वस्तु मिट्टी में मिल गई।

विद्याधरी–इसने उससे भी अमूल्य वस्तु का अपहरण किया है।

पंडित जी–तुम्हारा सिर तो नहीं फिर गया है?

विद्याधरी–शायद आपका अनुमान सत्य है।

पंडितजीने विद्याधरी की ओर चुभने वाली निगाहों से देखा। विद्याधरी की आँखें नीचे झुक गईं। वह उनसे आँखें न मिला सकी। भय हुआ कि कहीं यह तीव्र दृष्टि मेरे हृदय में चुभ न जाय। पंडितजी कठोर स्वर में बोले–विद्याधरी, तुम्हें स्पष्ट कहना होगा।

विद्याधरी से अब न रहा गया, वह रोने लगी, और पंडितजी के सम्मुख धरती पर गिर पड़ी।

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