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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


विद्याधरी के चेहरे का रंग उड़ गया, आँखें झुक गईं, कुछ हिचकिचाई, कुछ घबरायी। फिर अपने अपराधी हृदय को इन शब्दों से शांत किया–यह हार मैंने ठाकुरजी के लिए गूँथा है। उस समय विद्याधरी की घबराहट का भेद मैं कुछ न समझी। ठाकुरजी के लिए हार गूँथना कोई लज्जा की बात है? फिर जब वह हार मेरी नजरों से छिपा दिया गया, तो उसका जिक्र ही क्या? हम दोनों ने कितनी ही बार साथ बैठकर हार गूँथे थे। कोई निपुण मालिन भी हमसे अच्छे हार न गूँथ सकती थी। मगर इसमें शर्म क्या? दूसरे दिन यह रहस्य मेरी समझ में आ गया। वह हार राजा रणधीरसिंह को उपहार में देने के लिए बनाया गया था।

यह बहुत सुन्दर हार था। विद्याधरी ने अपना सारा चातुर्य उसके बनाने में खर्च किया। कदाचित् यह सबसे उत्तम वस्तु थी, जो वह राजा साहब को भेंट कर सकती थी। वह ब्राह्मणी थी। राजा साहब की गुरुमाता थी। उसके हाथों से यह उपहार बहुत ही शोभा देता था, किन्तु यह बात उसने मुझसे छिपायी क्यों?

मुझे उस दिन रात-भर नींद न आयी। उसके इस रहस्य-भाव ने उसे मेरी नजरों से गिरा दिया। एक बार आँख झपकी, तो मैंने उसे स्वप्न में देखा, मानो वह एक सुन्दर पुष्प है, किन्तु उसकी बास निकल गई है। वह मुझसे गले मिलने के लिए बढ़ी, किन्तु मैं हट गई और बोली–तूने मुझसे वह बात छिपाई क्यों?

ऐ मुसाफिर, राजा रणधीरसिंह की उदारता ने प्रजा को माला-माल कर दिया। रईसों और अमीरों ने खिलअतें पायीं। किसी को घोड़ा मिला, किसी को जागीर मिली। मुझे उन्होंने श्रीभगवद्गीता की एक प्रति एक मखमली बस्ते में रखकर दी। विद्याधरी को एक बहुमूल्य जड़ाऊ कंगन मिला। उस कंगन में अनमोल हीरे जड़े हुए थे। देहली के निपुण स्वर्णकारों ने उसके बनाने में अपनी कला का चमत्कार दिखाया था। विद्याधरी को तब तक आभूषणों से इतना प्रेम न था। अब तक सादगी ही उसका आभूषण और पवित्रता ही उसका श्रृंगार थी, पर इस कंगन पर वह लोट-पोट हो गई।

आषाढ़ का महीना आया। घटाएं गगन-मंडल में मँडराने लगीं। पंडित श्रीधर को घर की सुध आयी। पत्र लिखा कि मैं आ रहा हूँ। विद्याधरी ने मकान खूब साफ कराया, और स्वयं अपना बनाव-श्रृंगार किया। उसके वस्त्रों से चंदन की महक उड़ रही थी। उसने कंगन को संदूकचे से निकाला और सोचने लगी कि इसे पहनूँ या न पहनूँ? उसने मन में निश्चय किया कि न पहनना चाहिए संदूक में बन्द करके रख दिया।

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