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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


भोली-भाली विद्याधरी मनोविकारों की इस कुटिल नीति से बे-खबर थी। जिस प्रकार छालाँगें मारता हुआ हिरन व्याध की फैलायी हुई हरी-हरी घास देखकर उस ओर बढ़ता है, और यह नहीं समझता कि प्रत्येक पग मुझे सर्वनाश की ओर लिए जाता है, उसी भाँति विद्याधरी को उसका चंचल मन अंधकार की ओर खींचे लिए जाता था। वह राजा साहब के लिए अपने हाथ से बीड़े लगा कर भेजती, पूजा के लिए चंदन रगड़ती। रानीजी से भी उसका बहनापा हो गया। वह एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से न जाने देतीं। दोनों साथ-साथ बाग की सैर करतीं, साथ-साथ झूला-झूलती, साथ-साथ चौपड़ खेलतीं। यह उनका श्रृंगार करती, और वह इनकी माँग चोटी-सँवारती, मानो विद्याधरी ने रानी के हृदय में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जो किसी समय मुझे प्राप्त था। लेकिन वह गरीब क्या जानती थी कि जब मैं बाग की रविशों में विचरती हूँ, तो कुवासना मेरे तलवे के नीचे आँखें बिछाती है; मैं झूला झूलती हूं, तो वह आड़ में बैठी हुई आनंद से झूमती है। उस एक सरल-हृदय अबला स्त्री के लिए चारों ओर से चक्र-व्यूह रचा जा रहा था।

इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। राजा साहब का रब्त-जब्त दिनों-दिन बढ़ता जाता था। पंडित को उनसे वह स्नेह हो गया, जो गुरु को अपने एक होनहार शिष्य से होता है। मैंने देखा कि आठों पहर का यह सहवास पंडित जी के काम में बिघ्न डालता है, तो एक दिन मैंने उनसे कहा, यदि आपको कोई आपत्ति न हो, तो दूरस्थ देहातों का दौरा आरम्भ कर दें और इस बात का पता लगाएं कि देहातों में कृषकों के लिए बैंक खोलने में हमें प्रजा से कितनी सहानुभूति और कितनी सहायता की आशा करनी चाहिए। पंडितजी के मन की बात नहीं जानती, पर प्रत्यक्ष उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। दूसरे ही दिन प्रातःकाल चले गए। किंतु आश्चर्य है कि विद्याधरी उनके साथ न गयी। अब तक पंडितजी जहाँ कहीं जाते थे, विद्याधरी परछाईं की भाँति उनके साथ रहती थी। पंडितजी कितना ही समझाएं कितना ही डराएँ, वह उनका साथ न छोड़ती थी। पर अबकी बार कष्ट के विचार ने उसे कर्त्तव्य के मार्ग से विमुख कर दिया। पहले उसका पातिव्रत एक वृक्ष था, जो उसके प्रेम की क्यारी में अकेला खड़ा था; किन्तु अब उसी क्यारी में मैत्री की घास-पात निकल आयी थी, जिसका पोषण भी उसी भोजन पर अवलंबित था।

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