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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


राजा साहब के जीवन के दिन बाकी थे। बादशाह ने निराश होकर कहा–रोशन इसे कत्ल मत करना, काल-कोठरी में कैद कर दो। मुझसे पूछे बगैर इसे दाना-पानी कुछ न दिया जाय। जाकर इसके घर का सारा माल जब्त कर लो और सारे खानदान को जेल में बन्द कर दो। इसके मकान की दीवारें जमींदोज करा देना। घर में एक फूटी हाँडी भी न रहने पावे।

इससे तो कहीं अच्छा यही था कि राजा साहब ही की जान जाती। खान दान की बेइज्जती न होती, महिलाओं का अपमान तो न होता, दरिद्रता की चोट तो न सहनी पड़ती! विकार को निकलने का मार्ग नहीं मिलता, तो वह सारे शरीर में फैल जाता है। राजा के प्राण तो बचे, पर सारे खानदान को विपत्ति में डालकर!

रोशनुद्दौला को मुँह-माँगी मुराद मिली। उसकी ईर्ष्या कभी इतनी संतुष्ट न हुई थी। वह मग्न था कि आज वह काँटा निकल गया, जो बरसों से हृदय में चुभा हुआ था। आज हिन्दू राज्य का अन्त हुआ। अब मेरा सिक्का चलेगा। अब मैं समस्त राज्य का विधाता होऊँगा। संध्या से पहले ही राजा साहब की स्थावर और जंगम संपत्ति कुर्क हो गई। वृद्ध माता-पिता, सुकोमल रमणियाँ, छोटे-छोटे बालक सब-के-सब जेल में कैद कर दिए गए। कितनी करुण दशा थी! वे महिलाएँ, जिन पर कभी देवताओं की भी निगाह न पड़ी थी, खुले मुँह नंगे पैर, पाँव घसीटतीं, शहर की भरी सड़कों और गलियों से होती हुई, सिर झुकाए शोक-चित्रों की भाँति, जेल की तरफ चली जाती थीं। सशस्त्र सिपाहियों का एक बड़ा दल साथ था। जिस पुरुष के इशारे पर कई घण्टे पहले सारे शहर में हलचल मच जाती, उसी के खानदान की यह दुर्दशा!

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