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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


यह वाक्य कुछ अपमान-सूचक स्वर में कहा गया था; पर शीतला की आँखें आनंद से सजल हो आईं, कंठ गद्गद हो गया। उसके हृदय-नेत्रों के सामने मंगला के रत्न-जटित आभूषणों का चित्र खिंच गया। उसने कृतज्ञापूर्ण दृष्टि से सुरेश को देखा। मुँह से कुछ न बोली; पर उसका प्रत्येक अंग कह रहा था–मैं तुम्हारी हूँ।

कोयल आम की डालियों पर बैठकर, मछली शीतल, निर्मल जल में क्रीड़ा कर और मृग-शावक विस्तृत हरियालियों में छलाँगे भरकर इतने प्रसन्न नहीं होते, जितना मंगला के आभूषणों को पहनकर शीतला प्रसन्न हो रही है। उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वह आकाश में विचरती हुई जान पड़ती है। वह दिन भर आइने के सामने खड़ी रहती है; कभी केशों को सँवारती है, कभी सुरमा लगाती है। कुहरा फट गया है; और निर्मल स्वच्छ चाँदनी निकल आई है। वह घर का एक तिनका भी नहीं उठाती। उसके स्वभाव में एक विचित्र गर्व का संचार हो गया है।

लेकिन श्रृंगार क्या है? सोयी हुई काम-वासना को जगाने का घोर नादउद्दीपन का मंत्र। शीतला जब नख-शिख में सजकर बैठती है तो उसे प्रबल इच्छा होती कि मुझे कोई देखे। वह द्वार पर आकर खड़ी हो जाती है। गाँव की स्त्रियों की प्रसंशा से उसे संतोष नहीं होता। गाँव के पुरुषों को श्रृंगार रस-विहीन समझती है। इसलिए सुरेशसिंह को बुलाती है। पहले वह दिन में एक बार आ जाते थे; अब शीतला के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी नहीं आते।

पहर रात बीत गई थी। घरों के दीपक बुझ चुके थे। शीतला के घर दीपक जल रहा था। उसने कुँवर के बगीचे से बेले के फूल मँगवाए थे, और बैठी हार गूँथ रही थी–अपने लिए नहीं, सुरेश के लिए। प्रेम के सिवा एहसान का बदला देने के लिए उसके पास और था ही क्या?

एकाएक कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दी, और दम-भर में विमलसिंह ने मकान के अंदर कदम रखा। उनके एक हाथ में संदूक थी, दूसरे हाथ में एक गठरी। शरीर दुर्बल, कपड़े मैले; दाढ़ी के बाल बढ़े हुए, मुख पीला; जैसे कोई कैदी जेल से निकलकर आया हो। दीपक का प्रकाश देखकर वह शीतला के कमरे की तरफ चले। मैना पिंजरे में तड़फड़ाने लगी। शीतला ने चौंककर सिर उठाया। घबराकर बोली–कौन? फिर पहचान गई तुरंत फूलों को एक कपड़े से छिपा दिया। उठ खड़ी हुई और सिर झुकाकर पूछा-इतनी जल्दी सुध ली!

विमल ने कुछ जवाब न दिया। विकसित हो-होकर कभी शीतला को देखता और कभी घर को। मानों किसी नए संसार में पहुँच गया है। यह वह अधखिला फूल न था, जिसकी पंखुड़ियाँ अनुकूल जल-वायु न पाकर सिमट गई थीं। यह पूर्ण विकसित कुसुम था–ओस के जल-कणों से जगमगाता और वायु के झोकों से लहराता हुआ। विमल उसकी सुन्दरता पर पहले भी मुग्ध था। पर यह ज्योति वह अग्नि-ज्वाला थी, जिसके हृदय में ताप और आँखों में जलन होती थी। ये आभूषण ये वस्त्र, यह सजावट! उसके सिर में चक्कर-सा आ गया। जमीन पर बैठ गया। इस सूर्यमुख के सामने बैठते हुए उसे लज्जा आती थी। शीतला अभी तक स्तम्भित खड़ी थी। वह पानी लाने नहीं दौड़ी, उसने पति के चरण नहीं धोए, उसने पंखा तक नहीं झला। वह हतबुद्धि-सी हो गई थी! उसने कल्पनाओं की कैसी सुरम्य वाटिका लगाई थी! उस पर तुषार पड़ गया! वास्तव में इस मलिन बदन अर्द्ध-नग्न पुरुष से उसे घृणा हो रही थी। यह घर का जमींदार विमल न था। वह मजदूर हो गया था। मोटा काम मुखाकृति पर असर डाले बिना नहीं रहता। मजदूर सुन्दर वस्त्रों में भी मजदूर ही रहता है।

सहसा विमल की माँ चौंकी। शीतला के कमरे में आयी, तो विमल को देखते ही मातृस्नेह से विह्वल होकर उसे छाती से लगा लिया। विमल ने उसके चरणों पर सिर रखा। उसकी आँखों से आँसुओं की गरम-गरम बूँद निकल रही थीं।

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