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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


अकस्मात् वह ठिठक गए, जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाय। मनुष्य में बुद्धि के अन्तर्गत एक अज्ञात बुद्धि होती है। जैसे रण-क्षेत्र में हिम्मत हारकर भागनेवाले सैनिकों को किसी गुप्त-स्थान से आने वाली कुमक सँभाल लेती है, वैसे ही इस अज्ञात बुद्धि ने सुरेश को सचेत कर दिया। वह सँभल गए। ग्लानि से उनकी आँखें भर आई। वह कई मिनट तक किसी दंडित कैदी की भाँति क्षुब्ध खड़े सोचते रहे। फिर विजय-ध्वनि से कह उठे–कितना सरल है। और इस विकार के हाथी को सिंह से नहीं, चिउँटी से मारूँगा। शीतला को एक बार ‘बहन’ कह देने से ही सब विकार शांत हो जाएगा। शीतला! बहन! मैं तेरा भाई हूँ।

उसी क्षण उन्होंने शीतला को पत्र लिखा–बहन, तुमने इतने कष्ट झेले पर मुझे खबर तक न दी! मैं कोई गैर तो नहीं था। मुझे इसका दुःख है। खैर, अब ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हें कष्ट न होगा। इस पत्र के साथ उन्होंने नाज और रुपये भेजे।

शीतला ने उत्तर दिया–भैया, क्षमा करो। जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी। तुमने मेरी डूबती नाव पार लगा दी।

कई महीने बीत गए। संध्या का समय था। शीतला अपनी मैना को चारा चुगा रही थी। उसे सुरेश नैपाल से उसी के वास्ते लाए थे। इतने में सुरेश आ कर आँगन में बैठ गए।

शीतला ने पूछा–कहाँ से आते हो भैया?

सुरेश गया था जरा थाने। कुछ पता चला। रंगून में पहले कुछ पता मिला था। बाद को मालूम हुआ कि वह कोई और आदमी है। क्या करूँ? इनाम और बढ़ा दूँ?

शीतला–तुम्हारे पास रुपये बढे़ हैं, तो फूँको। उनकी इच्छा होगी, तो आप ही आवेंगे।

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