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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मंगला–मन की बात आदमी के मुँह से अनायास ही निकल जाती है। फिर सावधान होकर हम अपने भावों को छिपा लेते हैं।

सुरेश को अपनी असज्जनता पर दुख हुआ, पर इस भय से कि मैं इसे जितना ही मनाऊँगा, उतना ही यह जली-कटी सुनावेगी, उसे वहीं छोड़कर बाहर चले आए।

प्रातःकाल ठंडी हवा चल रही थी। सुरेश खुमारी में पड़े हुए स्वप्न देख रहे थे कि मंगला सामने से चली जा रही है। चौंक पड़े। देखा, द्वार पर सचमुच मंगला खड़ी है। घर की नौकरानियाँ आँचल से आँखें पोछ रहीं है। कई नौकर आस-पास खड़े हैं। सभी की आँखें सजल और मुख उदास हैं। मानो बहू बिदा हो रही है।

सुरेश समझ गये कि मंगला को कल की बात लग गई; पर उन्होंने उठकर कुछ पूछने की, मनाने की, या समझाने की चेष्टा न की। यह मेरा अपमान कर रही है; मेरा सिर नीचा कर रही है। जहाँ चाहे जाय। मुझसे कोई मतलब नहीं। यों बिना कुछ पूछे-पाछे चले जाने का अर्थ यह है कि मैं इसका कोई नहीं। फिर मैं इसे रोकने वाला कौन?

वह यों ही जड़वत् पड़े रहे, और मंगला चली गई। उनकी तरफ मुँह उठा कर भी न ताका।

मंगला पाँव-पैदल चली जा रही थी। एक बड़े ताल्लुकेदार की औरत के लिए यह मामूली बात न थी। हर किसी की हिम्मत न पड़ती कि उसे कुछ कहे। पुरुष उसकी राह छोड़कर किनारे खड़े हो जाते थे। नारियाँ द्वार पर खड़ी करुण कौतुहल से देखती थीं और आँखों से कहती थीं–हा निर्दयी पुरुष! इतना भी न हो सका कि डोले पर तो बैठा देता।

इस गाँव से निकलकर मंगला उस गाँव में पहुँची, जहाँ शीतला रहती थी। शीतला सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो गई और मंगला से बोली–बहन, जरा आकर दम ले लो।

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