लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

93 पाठक हैं

इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है

गल्प, आख्यायिका या छोटे कहानी लिखने की प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। धर्म-ग्रंथों में जो दृष्टांत भरे पड़े हैं, वे छोटी कहानियाँ ही हैं, पर कितनी उच्चकोटि की। महाभारत, उपनिषद, बुद्ध-जातक, बाइबिल, सभी सदग्रंथों में जन-शिक्षा का यही साधन उपयुक्त समझा गया है। ज्ञान और तत्त्व की बातें इतनी सरल रीति से और क्योंकर समझाई जातीं? किंतु प्राचीन ऋषि इन दृष्टांतों द्वारा केवल आध्यात्मिक और नैतिक तत्त्वों का निरूपण करते थे। उनका अभिप्राय केवल मनोरंजन न होता था। सद्ग्रंथों के रूपकों और बाइबिल के Parables देखकर तो यही कहना पड़ता है कि अगले जो कुछ कर गए, वह हमारी शक्ति से बाहर है, कितनी विशुद्ध कल्पना, कितना मौलिक निरूपण, कितनी ओजस्विनी रचना-शैली है कि उसे देखकर वर्तमान साहित्यिक बुद्धि चकरा जाती है। आज कल आख्यायिका का अर्थ बहुत व्यापक हो गया है। उनमें प्रेम की कहानियाँ, जासूसी किस्से, भ्रमण-वृत्तांत, अद्भुत घटना, विज्ञान की बातें, यहां तक की मित्रों की गप-शप सभी शामिल कर दी जाती हैं। एक अँगरेजी समालोचक के मतानुसार तो कोई रचना, जो पंद्रह मिनट में पढ़ी जा सके, गल्प कही जा सकती है। और तो और, उसका यथार्थ उद्देश्य इतना अनिश्चित हो गया है कि उसमें किसी प्रकार का उपदेश होना दूषण समझा जाने लगा है। वह कहानी सबसे नाक़िस समझी जाती है, जिसमें उपदेश की छाया भी पड़ जाय।

अनुक्रम

1. शाप
2. त्यागी का प्रेम
3. मृत्यु के पीछे
4. यही मेरी मातृभूमि है
5. लाग-डॉट
6. चकमा
7. आप-बीती
8. आभूषण
9. राज्य-भक्त
10. अधिकार-चिन्ता
11. दुराशा
12. गृह-दाह

शाप

मैं बर्लिन-नगर का निवासी हूँ। मेरे पूज्य पिता भौतिक विज्ञान के सुविख्यात ज्ञाता थे। भौगोलिक अन्वेषण का शौक़ मुझे भी बाल्यावस्था ही से था। उनके स्वर्गवास के बाद मुझे यह धुन सवार हुई कि पृथ्वी के समस्त देश-देशांतरो की पैदल सैर करूँ। मैं विपुल धन का स्वामी था, वे सब रुपये एक बैंक में जमा कर दिये, और उससे शर्त कर ली कि मुझे यथासमय रुपये भेजता रहे। इस कार्य से निवृत होकर मैंने सफर का पूरा सामान किया। आवश्यक वैज्ञानिक यन्त्र साथ लिये, और ईश्वर का नाम लेकर चल खड़ा हुआ। उस समय यह कल्पना मेरे हृदय में गुददुदी पैदा कर रही थी कि मैं वह पहला प्राणी हूँ, जिसे यह बात सूझी कि पैरों से पृथ्वी को नापे। अन्य यात्रियों ने रेल जहाज और मोटर-कार की शरण ली है; मैं पहला ही वीरात्मा हूँ, जिसने अपने पैरों के बुते पर प्रकृति के विराट उपवन की सैर के लिए कमर बाँधी है। अगर मेरे साहस और उत्साह ने यह कष्ट-साध्य यात्रा पूरी कर ली तो भद्र संसार मुझे सम्मान और गौरव के मसनद पर बैठाएगा, और अन्त काल तक मेरी कीर्ति के राग अलापे जाएँगे। उस समय मेरा मस्तिष्क इन्हीं विचारों से भरा हुआ था। ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि सहस्रों कठिनाइयों का सामना करने पर भी धैर्य ने मेरा साथ न छोड़ा, और उत्साह एक क्षण के लिए भी निरुत्साह न हुआ।

Next...

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book