लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

93 पाठक हैं

इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मुझे हरिद्वार आये तीन दिन व्यतीत हुए थे। प्रभात का समय था। मैं गंगा में खड़ी स्नान कर रही थी। सहसा मैरी दृष्टि ऊपर उठी, तो मैंने किसी आदमी को पुल के ऊपर से झाँकते देखा। अकस्मात उस मनुष्य का पाँव ऊपर उठ गया और वह सैकड़ों गज़ की ऊँचाई से गंगा में गिर पड़ा। सहस्रों आँखें यह दृश्य देख रही थीं, पर किसी को साहस न हुआ कि उस अभागे मनुष्य की जान बचाए। भारतवर्ष के अतिरिक्त ऐसा संवेदना-शून्य और कौन देश होगा? और यह वह देश है, जहाँ परमार्थ मनुष्य का परम कर्तव्य बताया गया है। लोग बैठे हुए अपंगुओं की भाँति तमाशा देख रहे थे। सभी हतबुद्धि-से हो रहे थे। धारा प्रबल वेग से बहती थी, और जल बर्फ से भी अधिक शीतल था। मैंने देखा कि वह गरीब धारा के साथ चला जाता है। यह हृदय-विदारक दृश्य मुझसे न देखा गया। मैं तैरने में अभ्यस्त थी। मैंने ईश्वर का नाम लिया, और मन को दृढ़ करके धारा के साथ तैरने लगी, ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ती थी, वह मनुष्य मुझसे दूर होता जाता था, यहाँ तक कि मेरे सारे अंग ठण्ड से शून्य हो गए।

मैंने कई बार चट्टानों को पकड़कर दम लिया, कई बार पत्थरों से टकरायी। मेरे हाथ ही न उठते थे। सारा शरीर बर्फ का ढाँचा-सा बना हुआ था। मेरे अंग ऐसे अशक्त हो गए थे कि मैं भी धारा के साथ बहने लगी, और मुझे विश्वास हो गया कि गंगामाता के उदर ही में मेरी जल-समाधि होगी। अकस्मात् मैंने उस पुरुष की लाश को एक चट्टान पर रुकते देखा। मेरा हौसला बँध गया। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हुआ। मैं जोर लगाकर प्राणपण से उस चट्टान पर जा पहुँची, और उसका हाथ पकड़कर खींचा मेरा कलेजा धक से हो गया। यह श्रीधर पंडित थे।

ऐ मुसाफिर, मैंने यह काम प्राणों को हथेली पर रखकर पूरा किया। जिस समय मैं पंडित श्रीधर की अर्द्ध-मृत देह लिये तट पर आयी, तो सहस्रों मनुष्यों की जय ध्वनि से आकाश गूँज उठा। कितने ही मनुष्यों ने मेरे चरणों पर सिर झुकाए। अभी लोग श्रीधर को होश में लाने का उपाय कर ही रहे थे कि विद्याधरी मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। उसका मुख प्रभात के चन्द्र की भाँति कांतिहीन हो रहा था, होठ सूखे, बाल बिखरे हुए, आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई। वह जोर से हाँफ रही थी, दौड़कर मेरे पैरों से चिमट गई, किन्तु दिल खोलकर नहीं, निर्मल भाव से नहीं। उसके मुँह से बात न निकलती थी। केवल इतना बोली–‘बहन, ईश्वर तुमको इस सत्कार्य का फल दें।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai