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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मैं और विद्याधरी ऊपर छत पर बैठी वर्षा-ऋतु की बहार देख रही थीं और कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ती थीं। इतने में मेरे पति ने आकर कहा–आज बड़ा सुहावना दिन है। झूला झूलने में बड़ा आनंद आएगा। सावन में झूला झूलने का प्रस्ताव क्योंकर रद्द किया जा सकता है? इन दिनों रमणी का चित्त आप-ही-आप झूला झूलने के लिए विकल हो जाता है। जब वन के वृक्ष झूला झूलते हों, जल की तरंगें झूले झूलती हों, और गगन-मंडप के मेघ झूला झूलते हों, जब सारी प्रकृति आंदोलित हो रही हो, तो रमणी का कोमल हृदय क्यों न चंचल हो जाय! विद्याधरी भी राजी हो गई। रेशम की डोरियाँ कदम की डाल पर पड़ गईं, चंदन का पटरा रख दिया गया, और मैं विद्याधरी के साथ झूला झूलने चली।

जिस प्रकार ज्ञानसरोवर पवित्र जल से परिपूर्ण हो रहा है, उसी भाँति हमारे हृदय पवित्र आनंद से परिपूर्ण थे। किंतु शोक! वह कदाचित् मेरे सौभाग्य-चंद्र की अंतिम झलक थी।

मैं झूले के पास पहुँचकर पटरे पर बैठी, किंतु कोमलांगी विद्याधरी ऊपर न आ सकी। वह कई बार उचकी, परंतु नीचे ही रह गई। तब मेरे परिदेव ने सहारा देने के लिए उसकी बाँह पकड़ ली। उस समय उनके नेत्रों में एक विचित्र तृष्णा की झलक थी, और मुख पर एक विचित्र आतुरता। वह धीमे स्वर में मल्हार गा रहे थे। किंतु विद्याधरी जब पटरे पर आयी, तो उसका मुख डूबते हुए सूर्य का भाँति लाल और नेत्र अरुण वर्ण हो रहे थे। उसने मेरे पतिदेव की ओर क्रोधोन्मत्त होकर देखा, और बोली–तूने काम के वश होकर मेरे शरीर में हाथ लगाया है। मैं अपने पातिव्रत के बल से तुझे शाप देती हूँ कि तू इसी क्षण पशु हो जा।

यह कहते ही विद्याधरी ने अपने गले से रुद्राक्ष की माला निकालकर मेरे पतिदेव के ऊपर फेंक दी, और तत्क्षण ही पटरे के समीप मेरे पतिदेव के स्थान पर एक विशाल सिंह दिखाई दिया।

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