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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


पत्रों की नोक-झोंक, पत्रिकाओं के तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना, कवियों के काव्य-चमत्कार, लेखकों का रचना-कौशल इत्यादि सभी बातें उन पर जादू का काम करतीं। इस पर छपाई की कठिनाइयाँ, ग्राहक-संख्या बढ़ाने की चिंता और पत्रिका को सर्वांग-सुन्दर बनाने की आकांक्षा और भी प्राणों को संकट में डाले रहती थी। कभी-कभी उन्हें खेद होता कि व्यर्थ की इस झमेले में पड़ा। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गए, और वह इसके लिए बिलकुल तैयार न थे। वह उसमें सम्मिलित न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम का श्रीगणेश है, इसी कारण ये सब बाधाएँ उपस्थित होती हैं। अगले वर्ष यह काम एक सुव्यस्थित रूप में आ जायगा, और तब मैं निश्चिंत होकर परीक्षा में बैठूँगा। पास कर लेना क्या कठिन है। ऐसे बुद्वू पास हो जाते हैं, जो एक सीधा-सा लेख भी नहीं लिख सकते, तो क्या मैं ही रह जाऊँगा?

मानकी ने उसकी ये बातें सुनीं, तो खूब दिल के फफोले फोड़े। मैं तो जानती थी कि यह धुन तुम्हें मटियामेट कर देगी। इसीलिए बार-बार रोकती थी, लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी। आप तो डूबे ही, मुझे भी ले डूबे। उनके पूज्य पिता बिगड़े, हितैषियों ने भी समझाया–अभी इस काम को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दो; कानून में उत्तीर्ण होकर निर्द्वन्द्व देशोद्वार में प्रवृत्त हो जाना। लेकिन ईश्वरचंद्र एक बार मैदान में आकर भागना निंद्य समझते थे। हाँ, उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा की कि दूसरे साल परीक्षा के लिए तन मन से तैयारी करूँगा।

अतएव नए वर्ष के पदार्पण करते ही उन्होंने कानून की पुस्तकें संग्रह कीं, पाठय-क्रम निश्चित किया, रोजनामचा लिखने लगे, और अपने चंचल और बहानेबाज चित्त को चारों ओर से जकड़ा, मगर चटपटे पदार्थों का आस्वादन करने के बाद सरल भोजन कब रूचिकर होता है? कानून में वे घातें कहाँ, वह उन्माद कहाँ, वे चोटें कहाँ, वह उत्तेजना कहाँ, वह हलचल कहाँ? बाबू साहब अब नित्य एक खोयी हुई दशा में रहते। जब तक अपने इच्छानुकूल काम करते थे, चौबीस घंटों में घंटे-दो-घंटे कानून भी देख लिया करते थे। उस नशे ने मानसिक शक्तियों को शिथिल कर दिया। स्नायु निर्जीव हो गए। उन्हें ज्ञात होने लगा कि अब मैं कानून के लायक नहीं रहा, और इस ज्ञान के कानून के प्रति उदासीनता का रूप धारण किया। मन में संतोषवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारब्ध और पूर्व-संस्कार के सिद्धान्तों की शरण लेने लगे।

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