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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


इस तरह कई साल गुजर गए। उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रूप धारण किया। भानुकुंवरि को मुंशीजी के उस भाव के लक्षण दिखाई देने लगे। इधर मुंशी के मन में भी कानून ने नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गाँव मेरा है। हाँ, मैं भानुकुँवरि का ३॰ हजार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी, अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर-ही-अन्दर सुलगती रही। मुंशीजी शस्त्र सज्जित हो कर आक्रमण के इन्तजार में थे और भानुकुंवरि इसके लिए अच्छा अवसर ढूँढ़ रही थी। एक दिन साहस करके उसने मुंशीजी को अन्दर बुलाया और कहा–लालाजी, ‘वरगदा’ में मंदिर का काम कब लगवाइएगा? उसे लिये आठ साल हो गए, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिन्दगी का कौन ठिकाना, जो करना है, उसे कर ही डालना चाहिए।

इस ढंग से इस विषय को उठाकर भानुकुँवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परिचय दिया। मुंशीजी भी दिल में इसके कायल हो गए। जरा सोचकर बोले–इरादा तो मेरा कई बार हुआ। पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की सब जमीन आसामियों के जोत में है और वह किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं।

भानुकुँवरि–यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गाँव के विषय में आपने कभी भूलकर भी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितना तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गाँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए।

मुंशीजी सँभल बैठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्री से बाजी ले जाना मुश्किल है। गाँव लेना ही है, तो अब क्या डर! खुलकर बोले–आपको इससे सरोकार न था। इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा।

भानुकुँवरि के हृदय में कुठार-सा लगा। परदे से निकल आयीं और मुंशीजी की तरफ तेज आँखों से देखकर बोलीं–आप क्या कहते हैं? आपने गाँव मेरे लिए लिया था या अपने लिए? रुपये मैंने दिए या आपने? उस पर जो खर्च पड़ा, वह मेरा था। या आपका? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं।

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