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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


गुमान में धैर्य की कमी नहीं थी। बातों को इस कान सुन, उस कान उड़ा देना उसका नित्यकर्म था। किन्तु भाइयों की इस ‘जनमुरीदी’ पर उसे क्रोध आ गया। बोला–भाइयों की जो इच्छा है, वह मेरे मन में भी लगी हुई है। मैं भी इस जंजाल से अब भागना चाहता हूँ। मुझसे न मजूरी हुई, न होगी, जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह चक्की पीसे। मेरे भाग्य में तो चैन करना लिखा हुआ है, मैं क्यों अपना सिर ओखली में दूँ? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता। आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हैं? अपनी-अपनी फिक्र कीजिए; मुझे आध सेर आटे की कमी नहीं है।

इस तरह की भाषाएँ कितनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक साभाओं की तरह इनसे भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था। दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया; जतनसिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता। अन्त में बूढे चौधरी गये मनाकर लाये, अब वह पुरानी गाड़ी अड़ती मचलती हिलती चलने लगी।

पांडे के घर के चूहों की तरह चौधरी के बच्चे भी सयाने थे। उनके लिए घोड़े मिट्टी के घोडे़ और नावें कागज की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था! गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल नहीं था, जिसे वह बीमारियों का घर न समझते हों। लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था। साधारण बच्चों की तरह यदि वह सोते भी हों, तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन गाँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरगार्टन की रंगीन गोलियाँ के ही संख्याएँ और दिनों के नाम याद हो गए थे। गुरदीन बूढ़ा-सा मैला-कुचैला आदमी था, किंतु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान के मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर बालकों का ऐसा धावा होता कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रणस्थल से भागना पड़ता था और जहाँ बच्चों के लिए मिठाइयाँ थीं वहां गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थी। माँ कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसे न रहने का बहाना करे, पर गुरदीन चटपट मिठाईयों का दोना बच्चे के हाथ में रख ही देता और स्नेहपूर्ण भाव से कहता–बहूजी! पैसों की कुछ चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेगे; कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण ने तुमको बच्चे दिये हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है। उन्हीं की बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावें, फिर देखना, कैसी ठनगन करता हूँ?

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