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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


झींगुर–तो तुम्हारा चक्कर बचाने के लिए मैं अपना खेत क्यों कुचलाऊँ? डाँड़ ही पर से ले जाना है, तो और खेतों के डाँड़ से क्यों नहीं ले गए? क्या मुझे कोई चूहड़-चमार समझ लिया है? या धन का घमंड हो गया है? लौटाओ इनको।

बुद्धू–महतो, आज निकल जाने दो। फिर कभी इधर से आऊँ तो जो सजा चाहे देना।

झींगुर–कह दिया कि लौटाओ इन्हें। अगर एक भेड़ भी मेंड़ पर आयी तो समझ लो कि तुम्हारी खैर नहीं है।

बुद्धू–महतो, अगर तुम्हारी एक बेल भी किसी भेड़ के पैरों-तले आ जाए, तो मुझे बैठाकर सौ गालियाँ देना।

बुद्धु बातें तो बड़ी नम्रता से कर रहा था, किन्तु लौटने में अपनी हेठी समझता था। उसने मन में सोचा, इसी तरह जरा-जरा धमकियों पर भेड़ों को लौटाने लगा। तो फिर मैं भेड़ चरा चुका। आज लौट जाऊँ तो कल को कहीं निकलने का रास्ता ही न मिलेगा। सभी रोब जमाने लगेंगे।

बुद्धू भी पोड़ा आदमी था। १२ कोड़ी भेंड़े थीं। इन्हें खेतों में बिठाने के लिए फ़ी रात आठ आने कोड़ी मजदूरी मिलती थी, इसके उपरांत दूध बेचता था; ऊन के कम्बल बनाता था। सोचने लगा–इतने गरम हो रहे हैं, मेरा कर ही क्या लेंगे? कुछ इनका दबैल तो हूँ नहीं। भेड़ों ने जो हरी-हरी पत्तियाँ देखी तो अधीर हो गईं। खेत में घुस पड़ीं। बुद्धू उन्हें डंडों से मार-मारकर खेत से हटाता था, और वे इधर-उधर से निकलकर खेत में जा पड़ती थीं। झींगुर ने आग होकर कहा–तुम मुझसे हेकड़ी जताने वाले चले हो, तो तुम्हारी सारी हेकड़ी निकाल दूँगा।

बुद्धू–तुम्हें देखकर चौंकती हैं। तुम हट जाओ, तो मैं सबको निकाल ले जाऊँ।

झींगुर ने लड़के को गोद से उतार दिया, और अपना डंडा सँभालकर भेड़ों पर पिल पड़ा। धोबी भी इतनी निर्दयता से अपने गधे को न पीटता होगा। किसी भेड़ की टाँग-टूटी किसी की कमर टूटी। सबने बें-बें का शोर मचाना शुरू किया। बुद्धू चुपचाप खड़ा अपनी सेना का विध्वंस अपनी आँखों से देखता रहा। वह न भेंड़ो को हाँकता था, न झींगुर से कुछ कहता था, बस खड़ा तमाशा देख रहा था। दो मिनट में झींगुर ने इस सेना को अपने अमानुषिक पराक्रम से मार भगाया। मेध-दल का संहार-करके गर्व से बोला–अब सीधे चले जाओं! फिर इधर से आने का नाम न लेना।

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