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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


कजाकी ने रुआसे होकर कहा–सरकार, अब कभी देर न होगी।

बाबूजी–आज क्यों देर की, इसका जवाब दे?

कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था कि मेरी जवान भी बंद हो गई। बाबूजी बड़े गुस्सावर थे। उन्हें काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। घर में केवल दो बार घंटे-घंटे भर के लिए भोजन करने आते थे, बाकी सारे दिन दफ्तर में लिखा-पढ़ी करते थे। उन्होंने बार-बार एक सहकारी को लिए अफसरों से विनय की थी; कुछ असर न हुआ था।

यहाँ तक कि तातील (अवकाश) के दिन भी बाबूजी दफ्तर में ही रहते थे। केवल माताजी उनका क्रोध शान्त करना जानती थीं; पर वह दफ्तर में कैसे आतीं। बेचारा कजाकी उसी वक्त मेरे देखते-देखते निकाल दिया गया। उसका बल्लम, चपरास व साफा छीन लिया गया और उसे डाकखाने से निकल जाने की नादिरी हुक्म सुना दिया गया। आह! उस वक्त मेरा ऐसा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती तो कजाकी को दे देता और बाबूजी को दिखा देता कि आपके निकाल देने से कजाकी का बाल भी बाँका नहीं हुआ।

किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना घमंड होता है उतना ही घंमड कजाकी को अपनी चपरास पर था। जब वह चपरास खोलने लगा, तो उसके हाथ काँप रहे थे और आँखों से आँसू बह रहे थे। और इस सारे उपद्रव की जड़ वह कोमल वस्तु थी, जो मेरी गोद में मुँह छिपाए ऐसे चैन से बैठी थी कि मानो माता की गोद में हो।

जब कजाकी चला गया तो मैं धीरे-धीरे उसके पीछे चला।

मेरे घर के द्वार पर आकर कजाकी ने कहा–भैया, अब घर जाओ; साँझ हो गई। मैं चुपचाप खड़ा अपने आँसुओं के वेग को सारी शक्ति से दबा रहा था।

कजाकी फिर बोला– भैया, मैं कहीं बाहर थोड़े ही जा रहा हूँ फिर आऊँगा। फिर और तुम्हें कंधे पर बैठाकर कुदाऊँगा। बाबूजी ने नौकरी ले ली है तो क्या इतना न करने देगे। तुमको छोड़कर मैं कहीं न जाऊँगा, भैया! जाकर अम्मा से कह दो, कजाकी जाता है। इसका कहा-सुना माफ करें।’

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