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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


चिंता के हृदय में आज न जाने क्यों भाँति-भाँति की शंकाए उठ रही थीं। वह कभी इतनी दुर्बल न थी। बुंदेलो की हार ही क्यों होगी, इसका कोई कारण तो वह न बता सकती थी, पर वह भावना उसके विकल हृदय से किसी तरह न निकलती थी। उस अभागिन के भाग्य में प्रेम का सुख भोगना लिखा होता, तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती, पिता के साथ वन-वन घूमना पड़ता, खोहों और कंदराओ में रहना पड़ता! और वह आश्रम भी तो बहुत दिन न रहा। पिता भी मुँह मोड़कर चल दिए। तब से एक दिन भी तो आराम से बैठना नसीब न हुआ। विधना क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड़ देगा? आह! उसके दुर्बल हृदय में इस समय एक विचित्र भावना उत्पन्न हुई–ईश्वर उसके प्रियतम को आज सकुशल लाये, तो वह उसे लेकर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी, पतिदेव की सेवा और आराधना में जीवन सफल करेगी। इस संग्राम से सदा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज पहली बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत हुआ।

सन्ध्या हो गई थी, सूर्य भगवान किसी हारे हुए सिपाही की भाँति मस्तक झुकाये कोई आड़ खोज रहे थे। सहसा एक सिपाही नंगे सिर, नंगे पाँव, निःशस्त्र उसके सामने आकर खड़ा हो गया। चिंता पर वज्रपात हो गया। एक क्षण तक मर्माहत सी बैठी रही। फिर उठकर घबरायी हुई सैनिक के पास आयी, और आतुर स्वर में पूछा–कौन-कौन बचा?

सैनिक ने कहा–कोई नहीं।

‘कोई नहीं! कोई नहीं!!’

चिंता सिर पकड़कर भूमि पर बैठ गई। सैनिक ने फिर कहा–मरहठे समीप आ पहुँचे।

‘समीप आ पहुँचे!!’

‘बहुत समीप!’

‘तो तुरंत चिता तैयार करो। समय नहीं है।’

‘अभी हम लोग तो सिर कटाने को हाजिर ही हैं।’

‘तुम्हारी जैसी इच्छा। मेरे कर्तव्य का यही अंत है।’

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