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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


चिंता का हृदय कातर हो गया था। वहाँ पहले केवल विजय लालसा का आधिपत्य था। अब भोग लालसा की प्रधानता थी। वही वीर बाला, जो सिंहनी की तरह गरजकर शत्रुओं के कलेजे कँपा देती थी, आज इतनी दुर्बल हो रही थी कि जब रत्नसिंह घोड़े पर सवार हुआ, तो आप उसकी कुशल कामना से मन ही मन देवी की मनौतियाँ कर रही थी। जब तक वृक्षों की ओट में छिप न गया, वह खड़ी उसे देखती रही, फिर वह किले के सबसे ऊँचे बुर्ज पर चढ़ गई, और घंटों उसी तरफ ताकती रही। वहाँ शून्य था, पहाड़ियों ने कभी का रत्नसिंह को अपनी ओट में छिपा लिया था, पर चिंता को ऐसा जान पड़ता था कि वह सामने चले जा रहे हैं। जब उषा की लोहित छवि वृक्षों की आड़ में झाँकने लगी, तो उसकी मोह-विस्मृति टूट गई। मालूम हुआ, चारो ओर शून्य है। वह रोती हुई बुर्ज से उतरी, और शय्या पर मुँह ढाँपकर रोने लगी।

रत्नसिंह के साथ मुश्किल से सौ आदमी थे, किन्तु सभी मँजे हुए, अवसर और संख्या को तुच्छ समझनेवाले, अपनी जान के दुश्मन। वे वीरोल्लास से भरे हुए एक वीर रस पूर्ण पद गाते हुए घोड़ों को बढ़ाए चले जाते थे।

बाँकी तेरी पाग सिपाही, इसकी रखना लाज।

तेग-तबर कुछ काम न आवे, बखतर ढाल व्यर्थ हो जावे।

रखियो मन में लाग, सिपाही बाँकी तेरी पाग।

इसकी रखना लाज।

पहाड़ियाँ इन वीर-स्वरों से गूँज रही थीं, घोड़ों की टापें ताल दे रही थीं।

यहाँ तक की रात बीत गई, सूर्य ने अपनी लाल आँखें खोल दीं, और वीरों पर अपनी स्वर्गच्छटा की वर्षा करने लगा।

वही रक्तमय प्रकाश में शत्रुओं की सेना एक पहाड़ी पर पड़ाव डाले हुए नजर आई!

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