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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


यात्रा का वृत्तांत लिखने की जरूरत नहीं। हर एक बड़े स्टेशन पर सेठ का सम्मान-पूर्ण स्वागत हुआ। कई जगह थैलियाँ मिलीं। रतलाम की रियासत ने एक शामियाना भेंट किया। बड़ोदा ने एक मोटर दी कि सेवकों को पैदल चलने का कष्ट न उठाना पड़े, यहाँ तक कि मदरसा पहुँचते-पहुँचते सेवा-दल के पास एक माकूल रकम के अतिरिक्त जरूरत की कितनी ही चीजें जमा हो गईं। वहाँ आबादी से दूर, एक खुले मैदान में हिंदू-सभा का पड़ाव पड़ा। शामियाने पर राष्ट्रीय झंडा फहराने लगा। सेवकों ने अपनी-अपनी वार्दियाँ निकालीं, स्थानीय धन-कुबेरों ने दावत के सामान भेजे, रावटियाँ पड़ गईं। चारों ओर ऐसी चहल-पहल हो गई, मानो किसी राजा का कैम्प है।

रात के आठ बजे थे। अछूतों की एक बस्ती के समीप, सेवक-दल का कैम्प गैस के प्रकाश से जगमगा रहा था। कई हजार आदमियों का जमाव था, जिनमें अधिकांश अछूत ही थे। उनके लिए अलग टाट बिछा दिये गये थे। ऊँचे वर्ग के हिंदू कालीनों पर बैठे हुए थे। पंडित लीलाधर का धुआँधार व्याख्यान हो रहा था–तुम उन्हीं ऋषिओं की संतान हो, जो आकाश के नीचे एक नई सृष्टि की रचना कर सकते थे, जिनके न्याय, बुद्धि और विचार-शक्ति के सामने आज सारा संसार सिर झुका रहा है–

सहसा एक बूढ़े अछूत ने उठकर पूछा–हम लोग भी उन्हीं ऋषियों की संतान हैं?

लीलाधर–निस्संदेह। तुम्हारी धमनियों में भी उन्हीं ऋषियों का रक्त दौड़ रहा था, और यद्यपि आज का निर्दयी, कठोर, विचार-हीन, संकुचित हिंदू-समाज तुम्हें अवहेलना की दृष्टि से देख रहा है, तथापि तुम किसी हिंदू से नीच नहीं हो, चाहे वह अपने को कितना ही ऊँचा समझता हो।

बूढ़ा–तुम्हारी सभा हम लोगों की सुध क्यों नहीं लेती?

लीलाधर–हिंदू-सभा का जन्म अभी थोड़े ही दिन हुए हुआ है, और इस अल्पकाल में उसने जितने काम किये हैं, उन पर अभिमान हो सकता है। हिंदू-जाति शताब्दियों के बाद गहरी नींद से चौंकी है। और अब वह समय निकट है, जब भारतवर्ष में कोई हिंदू किसी हिंदू को नीच न समझेगा, जब सब एक-दूसरे को भाई समझेंगे। श्रीरामचंद्र ने निषाद को छाती से लगाया था, शबरी के जूठे बेर खाये थे…

बूढ़ा–आप इन्हीं आत्माओं की संतान हैं, तो फिर ऊँच-नीच में क्यों इतना भेद मानते हैं?

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