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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


इसी बीच में गाँव का बूढ़ा कारिंदा परलोक सिधारा। उसकी जगह पर नवयुवक ललनसिंह नियुक्त हुआ जो अँगरेजी की शिक्षा पाया हुआ शौकीन, रंगीन और रसीला आदमी था। दो-चार ही दिनों में उसने पनघटों, तालाबों और झरोखों की देखभाल भली-भाँति कर ली। अंत में उसकी रसभरी दृष्टि दूजी पर पड़ी। उसकी सुकुमारता और रूपलावण्य पर मुग्ध हो गया। भाइयों से प्रेम और परस्पर मेल-जोल पैदा किया। कुछ विवाह-सम्बन्धी बातचीत छेड़ दी। यहाँ तक कि हुक्का-पानी भी साथ-साथ होने लगा। सायं-प्रातः इनके घर पर आया करता। भाइयों ने भी उसके आदर-सम्मान की सामग्रियाँ जमा कीं। पानदान मोल लाये, कालीन खरीदी। वह दरवाजे पर आता तो दूजी तुरंत पान के बीड़े बनाकर भेजती। बड़े भाई कालीन बिछा देते और छोटे भाई तश्तरी में मिठाइयाँ रख लाते। एक दिन श्रीमान् ने कहा–भैया शानसिंह, ईश्वर की कृपा हुई तो अब की लग्न में भाभी भी आ जायेगी। मैंने सब बातें ठीक कर ली हैं।

शानसिंह की बाछें खिल गयीं। अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देख कर कहा–मैं अब इस अवस्था में क्या करूँगा। हाँ, गुमानसिंह की बातचीत कहीं ठीक हो जाती, तो पाप कट जाता!

गुमानसिंह ने ताड़ का पंखा उठा लिया और झलते हुए बोले–वाह भैया! कैसी बात कहते हो?

ललनसिंह ने अकड़कर शानसिंह की ओर देखते हुए कहा–भाई साहब, क्या कहते हो, अबकी लग्न में दोनों भाभियाँ छमाछम करती हुई घर में आवें तो बात! मैं ऐसा कच्चा मामला नहीं रखता। तुम तो अभी से बुड्डों की भाँति बातें करने लगे! तुम्हारी अवस्था यद्यपि पचास से भी अधिक हो गयी पर देखने में चालीस वर्ष से भी कम मालूम होती है अब दोनों विवाह होंगे, बीच खेत होंगे। यह तो बताओ, वस्त्राभूषण का समुचित प्रबंध है न?

शानसिंह ने उनके जूतों को सीधा करते हुए कहा–भाई साहब! आप की यदि ऐसी कृपा-दृष्टि है, तो सब कुछ हो जायगा। आखिर इतने दिन कमा-कमा कर क्या किया है।

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