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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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मेरी इस ज्ञान-वर्षा ने वृन्दा के शुष्क हृदय को तृप्त कर दिया। वह तन्मय हो कर मेरी बात सुनती रही। जब मैं चुप हुआ तो उसने मुझे भक्ति-भाव से देखा और रोने लगी।

स्त्री–स्वामी के ज्ञानोपदेश ने मुझे सजग कर दिया, मैं अंधेरे कुएँ में पड़ी थी। इस उपदेश ने मुझे उठा कर पर्वत के ज्योतिर्मय शिखर पर बैठा दिया। मैंने अपनी कुलीनता से, झूठे अभिमान से, अपने वर्ण की पवित्रता के गर्व में, कितनी आत्माओं का निरादार किया! परमपिता, तुम मुझे क्षमा करो, मैंने अपने पूज्यवाद पति से इस अज्ञान के कारण, जो अश्रद्धा प्रकट की है, जो कठोर शब्द कहे हैं, उन्हें क्षमा करना!

जब से मैंने यह अमृत वाणी सुनी है, मेरा हृदय अत्यंत कोमल हो गया है, नाना प्रकार की सद्कल्पनाएँ चित्त में उठती रहती हैं। कल धोबिन कपड़े लेकर आयी थी। उसके सिर में बड़ा दर्द था। पहले मैं उसे इस दशा में देख कर कदाचित् मौखिक संवेदना प्रकट करती, अथवा महरी से उसे थोड़ा तेल दिलवा देती, पर कल मेरा चित्त विकल हो गया। मुझे प्रतीत हुआ, मानो यह मेरी बहिन है। मैंने उसे अपने पास बैठा लिया और घंटे भर तक उसके सिर में तेल मलती रही। उस समय मुझे जो स्वर्गीय आनंद हो रहा था, वह अकथनीय है। मेरा अंतःकरण किसी प्रबल शक्ति के वशीभूत हो कर उसकी ओर खिंचा चला जाता था। मेरी ननद ने आ कर मेरे इस व्यवहार पर कुछ नाक-भौं चढ़ायी, पर मैंने लेशमात्र भी परवाह न की। आज प्रातःकाल कड़ाके की सर्दी थी। हाथ-पाँव गले जाते थे। महरी काम करने आयी तो खड़ी काँप रही थी। मैं लिहाफ ओढ़े अंगीठी के सामने बैठी हुई थी! तिस पर मुँह बाहर निकालते न बनता था। महरी की सूरत देख कर मुझे अत्यंत दुःख हुआ। मुझे अपनी स्वार्थवृत्ति पर लज्जा आयी। इसके और मेरे बीच में क्या भेद है। इसकी आत्मा में उसी प्रकार की ज्योति है। यह अन्याय क्यों? क्या इसीलिए कि माया ने हम में भेद कर दिया है? मुझे कुछ और सोचने को साहस नहीं हुआ। मैं उठी, अपनी ऊनी चादर लाकर महरी को ओढ़ा दी और उसे हाथ पकड़ कर अंगीठी के पास बैठा लिया। इसके उपरांत मैंने अपना लिहाफ रख दिया और उसके साथ बैठ कर बर्तन धोने लगी। वह सरल हृदय मुझे वहाँ से बार-बार हटाना चाहती थी। मेरी ननद ने आ कर मुझे कौतूहल से देखा और इस प्रकार मुँह बना कर चली गयी, मानो मैं क्रीड़ा कर कही हूँ। सारे घर में हलचल पड़ गयी और इस जरा-सी बात पर! हमारी आँखों पर कितने मोटे परदे पड़ गये हैं। हम परमात्मा का कितना अपमान कर रहे हैं?

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