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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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प्रेमशंकर–यही ६ या ७ महीने होंगे।

डॉक्टर–कुछ नोच-खसोट तो नहीं करता? यह मेरे यहाँ माली था। इसके हथलपकेपन से तंग आकर मैंने इसे निकाल दिया था। कभी फूल तोड़ कर बेंच लाता, कभी पौधे उखाड़ ले जाता, और फलों का कहना ही क्या? वे इसके मारे बचते ही न थे। एक बार मैंने मित्रों की दावत की थी। मलीहाबादी सुफेदे में खूब फल लगे हुए थे। जब सब आकर बैठ गये और मैं उन्हें फल दिखाने के लिए ले गया तो सारे फल गायब! कुछ न पूछिये, उस घड़ी कितनी भद्द हुई! मैंने उसी क्षण इन महाशय को दुतकार बतायी। बड़ा ही दगाबाज आदमी है, और ऐसा चतुर है कि इसको पकड़ना मुश्किल है। कोई वकीलों ही जैसा काइयाँ आदमी हो तो इसे पकड़ सकता है ऐसी सफाई और ढिठाई से लुढ़कता है कि इसका मुँह देखते रह जाइए। आपको भी तो कभी चरका नहीं दिया?

प्रेमशंकर–जी नहीं, कभी नहीं। मुझे इसने शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया। यहाँ तो खूब मेहनत करता है, यहाँ तक कि दोपहर की छुट्टी में भी आराम नहीं करता। मुझे तो इस पर इतना भरोसा हो गया कि सारा बगीचा इसी पर छोड़ा रक्खा है। दिन भर में जो कुछ आमदनी होती है, वह शाम को मुझे दे देता है और कभी एक पाई का भी अन्तर नहीं पड़ता।

डॉक्टर–यही तो इसका कौशल है आपको उलटे छुरे मूँड़े और आपको खबर भी नहीं। आप इसे वेतन क्या देते हैं?

प्रेमशंकर–यहाँ किसी को वेतन नहीं दिया जाता। सब लोग लाभ में बराबर के साझेदार हैं। महीने-भर में आवश्यक व्यय के पश्चात जो कुछ बचता है, उनमें से १० रु० प्रति सैकड़ा धर्मखाते में डाल दिया जाता है, शेष रुपये समान भागों में बाँट दिये जाते हैं। पिछले महीने में १४० रु० की आमदनी हुई थी। मुझे मिला कर यहाँ सात आदमी हैं। २० रु० हिस्से पड़े। अबकी नारंगियाँ खूब हुई हैं, मटर की फलियों, गन्ने, गोभी आदि से अच्छी आमदनी हो रही है, ४० रु० से कम न पड़ेंगे।

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