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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


यह निश्चय करके जीवनदास कमरे में दाखिल हुए। युवक ने उनकी ओर गौर से देखा, जैसे अपने भूले हुए मित्र को पहचानने की चेष्टा कर रहा हो। अब अधीर हो कर बोला–महात्मा जी, आपका स्थान कहाँ है?

जीवनदास प्रसन्न हो कर बोला–बच्चा, संतों का स्थान कहाँ? समस्त संसार हमारा स्थान है।

युवन ने पूछा–आपका शुभ नाम लाल जीवनदास तो नहीं है?

जीवनदास चौंक पड़े। छाती बल्लियों उछलने लगी। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। कहीं यह खुफिया पुलिस का कर्मचारी तो नहीं है? कुछ निश्चय न कर सके, क्या उत्तर दूँ। गुम-सुम हो गये।

युवक ने असमंजस में पड़े देख कर कहा–मेरी यह धृष्टता क्षमा कीजिएगा। मैंने यह बात इसलिए पूछी कि आपका श्रीमुख मेरे पिता जी से बहुत मिलता है। वे बहुत दिनों से गायब हैं। लोग कहते हैं, संन्यासी हो गये। बरसों से उन्हीं की तलाश में मारा फिर रहा हूँ।

जिस प्रकार क्षितिज पर मेघराशि चढ़ती है और क्षणमात्र में संपूर्ण वायुमंडल को घेर लेती है उसी प्रकार जीवनदास को अपने हृदय में पूर्व-स्मृतियों की एक लहर-सी उठती हुई मालूम हुई। गला फँस गया और आँखों के सामने प्रत्येक वस्तु तैरती हुई जान पड़ने लगी। युवक की ओर सचेष्ट नेत्रों से देखा, स्मृति सजग हो गयी। उसके गले से लिपट कर बोले–लक्खू?

लखनदास उनके पैरों पर गिर पड़ा।

‘मैंने बिलकुल नहीं पहचाना।’

‘एक युग हो गया।’

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