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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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कई दिन पीछे मैंने गरीब से पूछा–क्यों जी, तुम्हारे घर पर कुछ खेती-बारी होती है?

गरीब ने दीनभाव से कहा–हाँ सरकार, होती है, आप के दो गुलाम हैं। वही करते हैं।

मैंने पूछा–गायें-भैंसें लगती हैं?

‘‘हाँ हुजूर, दो भैंसे लगती हैं? गाय अभी गाभिन है। आप लोगों की दया से पेट की रोटियाँ चल जाती हैं।’’

‘‘दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कुछ खातिर करते हो?’’

गरीब ने दीनतापूर्ण आश्चर्य से कहा–हुजूर, मैं सरकार लोगों की क्या खातिर कर सकता हूँ। खेती में जौ, चना मक्का, जुवार, घासपात के सिवाय और क्या होता है! आप लोग राजा हैं, यह मोटी झोटी चीजें किस मुँह से आपको भेंट करूँ! जी डरता है की कहीं कोई डाँट न बैठे, कि टके के आदमी की इतनी मजाल! इसी मारे बाबू जी कभी हियाव नहीं पड़ता। नहीं तो दूध-दही की कौन बिसात थी। मुँह के लायक बीड़ा तो होना चाहिए।

‘‘भला एक दिन कुछ लाके दो तो ; देखो लोग क्या कहते हैं। शहर में ये चीजें कहाँ मुयस्सर होती हैं। इन लोगों का जी भी तो कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला करता है।’’

‘‘जो सरकार कोई कुछ कहे तो? कहीं साहब से शिकायत कर दें तो मैं कहीं का न रहूँ।’’

‘इसका मेरा जिम्मा है, तुम्हें कोई कुछ न कहेगा, कोई कुछ कहेगा भी; तो मैं समझा दूँगा।

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