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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


जेठ का महीना था, लेकिन शिमले में न लू की ज्वाला थी और न धूप का ताप। महाशय मेहता विलायती चिट्ठियाँ खोल रहे थे। बालकृष्ण का पत्र देखते ही फड़क उठे, लेकिन जब उसे पढ़ा तो मुखमंडल पर उदासी छा गयी। पत्र लिये हुए राजेश्वरी के पास आये। उसने उत्सुक होकर पूछा–बाला का पत्र आया।

मेहता–हाँ, यह है।

राजेश्वरी–कब आ रहे हैं।

मेहता–आने-जाने के विषय में कुछ नहीं लिखा। बस, सारे पत्र में मेरे जाति-द्रोह और दुर्गति का रोना है। उसकी दृष्टि में मैं जाति का शत्रु, धूर्त-स्वार्थांध, दुरात्मा, सब कुछ हूँ। मैं नहीं समझता कि उसके विचारों में इतना अन्तर कैसे हो गया। मैं तो उसे बहुत ही शांत-प्रकृति, गम्भीर, सुशील, सच्चरित्र और सिद्धांतप्रिय नवयुवक समझता था और उस पर गर्व करता था। और फिर यह पत्र लिख कर ही उसे संतोष नहीं हुआ, उसने मेरी स्पीच का विस्तृत विवेचन एक प्रसिद्ध अंगरेजी पत्रिका में छपवाया है। इतनी कुशल हुई कि वह लेख अपने नाम से नहीं लिखा, नहीं तो मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहता। मालूम नहीं यह किन लोगों की कुसंगति का फल है। महाराज भिंद की नौकरी उसके विचार में गुलामी है, राजा भद्रबहादुर सिंह के साथ मनोरमा का विवाह घृणित और अपमानजनक है। उसे इतना साहस कि मुझे धूर्त, मक्कार, ईमान, बेचनेवाला, कुलद्रोही कहे। यह अपमान! मैं उसका मुँह नहीं देखना चाहता…

राजेश्वरी–लाओ, जरा इस पत्र को मैं भी देखूँ! वह तो इतना मुँहफट न था।

यह कह कर उसने पति के हाथ से पत्र लिया और एक मिनट में आद्यांत पढ़ कर बोली–यह सब कटु बातें कहाँ हैं? मुझे तो इसमें एक भी अपशब्द नहीं मिलता।

मेहता–भाव देखो, शब्दों पर न जाओ।

राजेश्वरी–जब तुम्हारे और उसके आदर्शों में विरोध है तो उसे तुम पर श्रद्धा क्यों कर सकती हो?

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