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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है

प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को एक निश्चित परिप्रेक्ष्य व कलात्मक आधार दिया। उन्होंने कहानी के स्वरूप को पाठकों की रुचि, कल्पना और विचारशक्ति का निर्माण करते हुए विकसित किया है। उनकी कहानियों का भाव जगत आत्मानुभूत अथवा निकट से देखा हुआ है। कहानी क्षेत्र में वे वास्तविक जगत की उपज थे। उनकी कहानी की विशिष्टता यह है कि उसमें आदर्श और यथार्थ का गंगा-यमुनी संगम है। कथा के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किवदंती बन गए थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामणी एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया है। उनकी कथा यात्रा में क्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं। यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु उसका आधार एक सुसंगत यथार्थवाद है, जो भावुकतापूर्ण आदर्शवाद, प्रस्थान का पूर्णक्रम पाठकों के समक्ष रख सका है।

‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है। ‘प्रतिज्ञा’ का नायक विधुर अमृतराय किसी विधवा से शादी करना चाहता है ताकि किसी नवयौवना का जीवन नष्ट न हो। नायिका पूर्णा आश्रयहीन विधवा है। समाज के भूखे भेड़िये उसके संयम को तोड़ना चाहते हैं। उपन्यास में प्रेमचंद ने विधवा समस्या को नये रूप में प्रस्तुत किया है एवं विकल्प भी सुझाया है।

इसी पुस्तक में प्रेमचंद का अंतिम और अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ भी है। इसका थोड़ा-बहुत अंश ही वे लिख पाए थे। यह ‘गोदान’ के तुरंत बाद की कृति है। जिसमें लेखक अपनी शक्तियों के चरमोत्कर्ष पर था।

प्रतिज्ञा

काशी के आर्य-मन्दिर में पण्डित अमरनाथ का व्याख्यान हो रहा था। श्रोता लोग मन्त्र-मुग्ध से बैठे सुन रहे थे। प्रोफेसर दाननाथ ने आगे खिसककर अपने मित्र बाबू अमृतराय के कान में कहा–रटी हुई स्पीच है।

अमृतराय स्पीच सुनने में तल्लीन थे। कुछ जवाब न दिया।

दाननाथ ने फिर कहा–साफ रटी हुई मालूम होती है! बैठना व्यर्थ है। टेनिस का समय निकला जा रहा है।

अमृतराय ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। एक क्षण के बाद दाननाथ ने फिर कहा–भाई, मैं तो जाता हूं।

अमृतराय ने उनकी तरफ देखे बिना ही कहा–जाइए।

दान०–तुम कब तक बैठे रहोगे?

अमृत०–मैं तो सारी स्पीच सुनकर जाऊंगा।

दान०–बस, हो निरे बुद्धू, अरे स्पीच में है क्या? रटकर सुना रहा है।

अमृत०–तो आप जाइए न। मैं आपको रोकता तो नहीं।

दान०–अजी घण्टों बोलेगा। रांड़ का चरखा है या स्पीच है।

अमृत०–उंह सुनने दो। क्या बक-बक कर रहे हो? तुम्हें जाना हो जाओ, मैं सारी स्पीच सुनकर ही आऊंगा।

दान०–पछताओगे। आज प्रेमा भी खेल में आएगी।

अमृत०–तो तुम उससे मेरी तरफ से क्षमा मांग लेना।

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