किन्तु पूर्णा अभी तक द्वार पर खड़ी थी। सुमित्रा की वियोग-व्यथा कितनी दुःसह हो रही है, यह सोचकर उसका कोमल हृदय द्रवित हो गया। क्या इस अवसर पर उसका कुछ भी उत्तरदायित्व न था? क्या इस भांति तटस्थ रहकर तमाशा देखना ही उसका कर्त्तव्य था? इस सारी मानलीला का मूल कारण तो वही थी, तब वह क्या शान्तचित्त से दो प्रेमियों को वियोगाग्नि में जलते देख सकती थी? कदापि नहीं। इसके पहले भी कई बार उसके जी में आया था कि कमलाप्रसाद को समझा-बुझाकर शान्त कर दे; लेकिन कितनी ही शंकाएं उसका रास्ता रोककर खड़ी हो गयी थीं। आज करुणा ने उस शंकाओं का शमन कर दिया। वह कमलाप्रसाद को मनाने चली। उसके मन में किसी प्रकार का संदेह न था। कमला को वह शुरू से अपना बड़ा भाई समझती आ रही थी, भैया कहकर पुकारती भी थी। फिर उसे अपने कमरे में जाने जरूरत ही क्या थी? वह कमरे के द्वार पर खड़ी होकर उन्हें पुकारेगी, और कहेगी–भाभी को ज्वर हो आया है, आप जरा अन्दर चले आइए। बस, यह खबर पाते ही कमला दौड़े अन्दर चले आएंगे, इसमें उसे लेशमात्र भी संदेह नहीं था। तीन साल के वैवाहिक जीवन का अनुभव होने पर भी वह पुरुष-संसार में वह स्वच्छन्द रूप से खेत, खलिहान में विचरा करती थी। विवाह भी ऐसे पुरुष से हुआ, जो जवान होकर भी बालक था, जो इतना लज्जाशील था कि यदि मुहल्ले की कोई स्त्री घर आ जाती, तो अन्दर कदम न रखता। वह अपने कमरे से निकली और मर्दाने कमरे के द्वार पर जाकर धीरे से किवाड़ पर थपकी दी। भय तो उसे यह था कि कमला प्रसाद की नींद मुश्किल से टूटेगी; लेकिन वहां नींद कहां? आहट पाते ही कमला ने द्वार खोल दिया और पूर्णा को देखकर कुतूहल से बोला–क्या है पूर्णा, आओ बैठो।
पूर्णा ने सुमित्रा की बीमारी की सूचना न दी; क्योंकि झूठ बोलने की उसकी आदत न थी। एक क्षण तक वह अनिश्चित दशा में खड़ी रही। कोई बात न सूझती थी। अन्त में बोली–क्या आप सुमित्रा से रूठे हैं? वह बेचारी मनाने आयी थी तिस पर भी आप न गए।
कमला ने विस्मित होकर कहा–मनाने आयी थी! सुमित्रा! झूठी बात! मुझे कोई मनाने नहीं आया था। मनाने ही क्यों लगी। जिससे प्रेम होता है, उसे मनाया जाता है। मैं तो मर भी जाऊं, तो किसी को रंज न हो। हां मां-बाप रो लेंगे। सुमित्रा मुझे क्यों मनाने लगी। क्या तुमसे कहती थी?
पूर्णा को भी आश्चर्य हुआ। सुमित्रा कहां आयी थी और क्यों लौट गयी? बोली–मैंने अभी उन्हें यहां आते और इधर से जाते देखा है। मैंने समझा, शायद आपके पास आयी हों। इस तरह कब तक रूठे रहिएगा! बेचारी रात-दिन रोती रहती हैं।
कमला ने मानो यह बात नहीं सुनी। समीप आकर बोले–यहां कब तक खड़ी रहोगी। अन्दर आओ, तुमसे कुछ कहना है
यह कहते-कहते उसने पूर्णा की कलाई पकड़ अन्दर खींच लिया; और द्वार की सिटकनी लगा दी। पूर्णा का कलेजा धक-धक करने लगा। उस आवेश से भरे हुए, कठोर, उग्र,-स्पर्श ने मानोसर्प के समान उसे डस लिया। सारी कर्मेन्द्रियां शिथिल पड़ गयीं। थर-थर कांपती हुई व द्वार से चिपट कर खड़ी हो गयी।