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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


अमृत०–यह मैं खूब समझ रहा हूं भाई, लेकिन अब मेरा मन कह रहा है कि मुझे उससे विवाह करने का अधिकार नहीं है। पण्डित अमरनाथ की बात मेरे दिल में बैठ गई है।

दाननाथ ने अमरनाथ का नाम आते ही नाक सिकोड़कर कहा–क्या कहना है, वाह! रटकर एक व्याख्यान दे दिया और तुम लट्टू हो गए। वह बेचारे समाज की खाक व्यवस्था करेंगे? यह अच्छा सिद्धान्त है कि जिसकी पहली स्त्री मर गई हो, वह विधवा से विवाह करे!

अमृत०–न्याय तो यही कहता है।

दान०–बस, तुम्हारे न्याय-पथ पर चलने से ही तो सारे संसार का उद्धार हो जाएगा। तुम अकेले कुछ नहीं कर सकते। हां, नक्कू बन सकते हो!

अमृतराय ने दाननाथ को सगर्व नेत्रों से देखकर कहा–आदमी अकेला भी बहुत कुछ कर सकता है। अकेले आदमियों ने ही आदि से विचारों में क्रांति पैदा की है। अकेले आदमियों के कृत्यों से सारा इतिहास भरा पड़ा है। गौतम बुद्ध कौन था? वह अकेला अपने विचारों का प्रचार करने निकला था और उसके जीवनकाल ही में आधी दुनिया उसके चरणों पर सिर रख चुकी थी। अकेले आदमियों से राष्ट्रों के नाम चल रहे हैं। राष्ट्रों का अंत हो गया। आज उनका निशान भी बाकी नहीं; मगर अकेले आदमियों के नाम अभी तक चल रहे हैं। आप जानते हैं कि प्लेटो एक अमर नाम है; लेकिन कितने आदमी ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि वह किस देश का रहने वाला था; मैं अकेला कुछ न कर सकूं, यह बात दूसरी है। बहुधा समूह भी कुछ नहीं कर सकता। समूह तो कभी कुछ नहीं कर सकता, लेकिन अकेला आदमी कुछ नहीं कर सकता–यह मैं न मानूंगा।

दाननाथ सरल स्वभाव के मनुष्य थे। जीवन के सरलतम मार्ग पर चलने में ही वह संतुष्ट थे। किसी सिद्धान्त या आदर्श के लिए कष्ट सहना उन्होंने न सीखा था। वह एक कालेज के अध्यापक थे। दस बजे कॉलेज जाते। एक बजे लौट आते। बाकी सारा दिन सैर-सपाटे और हंसी-खेल में काट देते थे।

अमृतराय सिद्धान्तवादी आदमी थे–बड़े ही संयमशील। कोई काम नियम विरुद्ध न करते। जीवन का सद्व्यय कैसे हो, इसका उन्हें सदैव ध्यान रहता था। धुन के पक्के आदमी थे। एक बार कोई निश्चय करके उसे पूरा किए बिना न छोड़ते थे। वकील थे, पर इस पेशे से उन्हें प्रेम न था। मुवक्किलों की बातें सुनने की अपेक्षा विद्वानों की मूक वाणी सुनने में उन्हें कहीं अधिक आनन्द आता था। बनाए हुए मुकदमे भूलकर भी न लेते थे। लेकिन जिस मुकदमें को ले लेते, उसके लिए जान लड़ा देते थे, स्वभाव के दयालू थे, व्यसन कोई था नहीं, धन संचय की इच्छा भी न थी, इसलिए बहुत थोड़े मेहनताने में राजी हो जाते थे। यही कारण था कि उन्हें मुकदमों में हार बहुत कम होती थी। उनकी पहली शादी उस वक्त हुई थी, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे। एक पुत्र भी हुआ था, लेकिन स्त्री और पुत्र दोनों प्रसव-काल ही में संसार से प्रस्थान कर गए।

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