लोगों की राय

उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

262 पाठक हैं

‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दाननाथ अब बड़े असमंजस में पड़े। यह पैगाम पाते ही उन्हें फूल उठना चाहिए था; पर यह बात न हुई। उन्हें अपनी स्वीकृति लिख भेजने में एक सप्ताह से अधिक लग गया। भांति-भांति की शंकाएं होती थीं–वह प्रेमा को प्रसन्न रख सकेंगे? उसके हृदय पर अधिकार पा सकेंगे? ऐसा तो न होगा कि जीवन भार-स्वरूप हो जाए, उनका हृदय इन प्रश्नों का बहुत ही संतोषप्रद उत्तर देता था। प्रेम में यदि प्रेम को खींचने की शक्ति है, तो वह अवश्य सफल होंगे, लेकिन औचित्य की कसौटी पर कसने से उन्हें अपना व्यवहार मैत्री ही नहीं सौजन्य के प्रतिकूल जंचता था। अपने प्राणों से प्यारे मित्र के त्याग से लाभ उठाने का विचार उन्हें कातर कर देता था।

ऐसा ही प्रतीत होता था, मानो उसका घर जल रहा है और वह ताप रहे हैं। उन्हें विश्वास था कि प्रेमा से जितना प्रेम मैं करता हूं, उतना अमृतराय नहीं करते। उसके बिना उन्हें अपना जीवन शून्य, निरुद्देश्य जान पड़ता था। वह पारिवारिक वृत्ति के मनुष्य थे। सेवा, प्रचार और आन्दोलन उनके स्वभाव में नहीं था, कीर्ति की अभिलाषा भी न थी, निष्काम कर्म तो बहुत दूर की बात है।

अन्त में बहुत सोचने-विचारने के बाद उन्होंने यही स्थिर किया कि एक बार अमृतराय को फिर टटोलना चाहिए। यदि अब भी उनका मत वह बदल सके, तो उन्हें आनन्द ही होगा, इसमें कोई सन्देह न था। जीवन का सुख तो अभिलाषा में है। यह अभिलाषा पूरी हुई, तो कोई दूसरी आ खड़ी होगी। जब एक-न-एक अभिलाषा का रहना निश्चित है, तो यही क्यों न रहे? इससे सुन्दर, आनन्दप्रद और कौन-सी अभिलाषा हो सकती है? इसके सिवा यह भय भी था कि कहीं जीवन का यह अभिनय वियोगान्त न हो। प्रथम प्रेम कितना अमिट होता है यह वह खूब जानते थे।

आजकल कालेज तो बन्द था। पर दाननाथ ‘डॉक्टर’ की उपाधि के लिए एक ग्रन्थ लिख रहे थे। भोजन करके कॉलेज चले जाते थे। वहां पुस्तकालय में बैठकर जितनी सुविधाएं थीं, घर पर न हो सकती थीं। आज वह सारे दिन पुस्तकालय में बैठे रहे, पर न तो एक अक्षर लिखा और न एक लाइन पढ़ी। उन्होंने वह दुष्कर कार्य कर डालने का आज निश्चय किया था, जिसे वह कई दिनों से टालते आए थे। क्या-क्या बातें होंगी, मन में यही सोचते हुए वह अमृतराय के बंगले पर जा पहुंचे। सूर्यदेव पुष्पों और पल्लवों पर अपने अंतिम प्रसाद की स्वर्ण वर्षा करते हुए जा रहे थे। टमटम तैयार खड़ी थी, पर अमृतराय का पता न था। नौकर से पूछा तो मालूम हुआ कि कमरे में हैं। कमरे के द्वार का परदा उठाते हुए बोले–भले आदमी, तुम्हें गरमी भी नहीं लगती; यहां सांस लेना मुश्किल है और आप बैठे तपस्या कर रहे हैं।

प्रकाश की एक सूक्ष्म रेखा चिक में प्रवेश करती हुई अमृतराय के मुख पर पड़ी। अमृतराय चौंक पड़े। वह मुख पीतवर्ण हो रहा था। आठ-दस दिन पहले जो कान्ति थी, उसका कहीं नाम तक न था। घबराकर कहा–यह तुम्हारी क्या दशा है? कहीं लू तो नहीं लग गई? कैसी तबीयत है!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai