उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
इस बात से स्नेह कुछ परेशानी अनुभव करने लगी। उसने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। उसके पति ने तो उसको असाध्य रोग की रोगिणी मानकर उसकी चिकित्सा छोड़ रखी थी। यह तो उसकी एक सहेली ने, जिसका विवाह दिल्ली में हुआ था, बताया था कि वहां एक सफल वैद्य हैं। उसको दिखा लो। उसकी बात ही स्नेह ने अपनी ननद को बताई थी। स्नेह तो बेचारी स्वयं मैट्रिक पास भी नहीं थी। इस कारण बी. ए. पास ननद को अपने भाई की प्रतिष्ठा की बात कहते सुन चुप हो गई।
उसकी बात की उपेक्षा करते हुए उसने नीला को कहा, ‘‘आओ, भीतर आ जाओ। चाय इत्यादि पी आई हो अथवा नहीं?’’
‘‘अल्पाहार करके आई हूं। कुछ अपनी आगे की पढ़ाई के विषय में भैया से राय करनी है।’’
‘‘उनको खाली होने में तो अभी दो घण्टे लग जायेंगे।’’
‘‘मुझे तो उन्होंने कहा है कि मैं अभी पांच मिनट में आता हूँ।’’
फिर भी डॉक्टर साहनी पूरे दो घण्टे में आया। स्नेह बैठी-बैठी थक गई थी और अपने सोने के कमरे में जाकर लेट गई थी।
ठीक बारह, बजे, शेष रहे रोगियों को सायंकाल आने के लिए कहकर, वह बैठक में आया तो नीला को बैठे हुए देख क्षमा मांगने लगा,
‘‘नीला! क्षमा करना। यह प्रोफैशन ही ऐसा है। चल जाय तब भी मरा और न चले तब भी मरा।’’
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