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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘बिना विवाह के ही?’’

‘‘ मम्मी! विवाह के झगड़े की आवश्यकता क्या है? पहले विवाह कराओ फिर न बने तो तलाक दो। तलाक के लिए कोर्ट में जाओ। एक दूसरे पर झूठे लांछन लगाओ। तलाक की बात समाचार पत्रों में छपे और सब परिचितों में हो-हल्ला हो। हम दोनों ने इस सबसे बचने के लिए गिरजाघर अथवा रजिस्ट्रेशन कोर्ट में जाना उचित नहीं समझा।’’

लड़की की बात सुन कर माता-पिता दोनों एक दूसरे के मुख देखने लगे। लड़की निश्चित भाव से चुपचाप उनके सम्मुख बैठी रही। तदनन्तर विचार कर डॉक्टर ने कहा, ‘‘कम-से-कम हम को तो तुम लोग बता ही देते?

‘‘इसकी क्या आवश्यकता थी पापा!’’

‘‘इससे हम दोनों तुम दोनों के इस व्यवहार के साक्षी तो हो जाते।’’

‘‘हमने इस विषय पर विचार किया था और अन्त में इसी परिणाम पर पहुंचे कि पापा और मम्मी को बताने की आवश्यकता नहीं। बताना सर्वथा अस्वाभाविक था। प्रकृति में इस प्रकार बताने की बात हमें कहीं भी दिखाई नहीं दी।’’

‘‘गुड! वेरी गुड!! आइ एम ग्लैडटु नो दैट आवर चायल्ड हैज ओवरग्रोन अस। (खूब! बहुत खूब!! मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि हमारी बच्ची हमसे आगे निकल गई है।’’

‘‘हम इसको प्रोग्रेस मानते हैं।’’

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