उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
अब उर्मिला, जो अभी तक शान्त भाव सै बैठी और सबकी सुन रही थी, बोली, ‘‘पिताजी! यदि यह सब सच भी हो तो फिर हुआ क्या? इन्द्र दो विवाह कर लेगा, यही न?’’
‘‘यह मामूली बात समझती हो तुम?’’
‘‘जी। हिन्दुओं में पुरुषों के लिये दो अथवा दो से अधिक विवाह करने की स्वीकृति ऐसी अवस्थाओं के लिये ही तो है।’’
‘‘पूछो इन्द्र से। वह दो पत्नियाँ रखना चाहेगा? और फिर यह नगर की पढ़ी-लिखी लड़की देहात की अनपढ़ गँवार लड़की को टिकने भी देगी?’’
इस पर सौभाग्यवती ने कह दिया, ‘‘पिताजी! आपने हमको सचेत कर दिया है। इसके लिये हम आपका धन्यवाद करते हैं। आपने जिस बात का भय बतलाया है मैं उसको समझती हूँ। इस भय को निकालने का हम यत्न करेंगे।’’
‘‘हाँ, मैंने अपना कर्तव्यपालन कर दिया है। आगे तुम जानो और तुम्हारा काम।’’
‘‘काका!’’ रामाधार का कहना था, ‘‘आपने तो अपना कर्तव्य उस दिन ही पालन कर दिया था, जिस दिन कहा था कि इन्द्र के लिये आपके घर पर स्थान नहीं। हम मूर्ख समझे ही नहीं। अब समझने का यत्न करेंगे।’’
इस समय विष्णु आ गया। वह घर के सब लोगों को एकत्रित देख बैठक में आते-आते रुक गया। वह लौटकर अपने कमरे में चला गया। इन्द्रनारायण के मन में यह विश्वास बैठ गया था कि विष्णु झूठ-मूठ बातें कहकर नानाजी को उसके विरुद्ध कर रहा है। इससे उसे आये देख इन्द्र उठ पड़ा। उसने अपने पिता को कह दिया, ‘बाबा! अब चलना चाहिये। छोटे मामा आ गये हैं और उनको पिताजी से कुछ परामर्श करना प्रतीत होता है।’’
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