उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘नहीं, इच्छा नहीं हो रही। डेढ़ वर्ष हो गया है, जब उनके घर से तिरस्कार पाकर गया था। तब से अभी तक उनकी बात भूला नहीं।’’
‘‘बाबा!’’ इन्द्र ने कहा, ‘‘उनके घर से नियमित रूप से पचहत्तर रुपये मासिक मेरे बैंक में जमा हो जाते हैं। मुझको यह पता चला है कि वह रुपया मामी उर्मिला दे रही है।’’
‘‘तुम वहाँ जाया करते हो?’’
‘‘हाँ, महीने में एक-आध बार। नानाजी, मामाजी और मौसीजी बहुत स्नेह रखती हैं। नानाजी का स्वभाव बिगड़ता जा रहा है। विष्णु तो अब मुझसे बोलता ही नहीं।’’
‘‘हम तो घर से निश्चित कर आये थे कि वहाँ नहीं जायेंगे।’’
‘‘मेरा विचार है कि आपको जाना चाहिए। नानाजी, उर्मिला मामी और मौसीजी का धन्यवाद कर देना चाहिये। शेष की आवश्यकता नहीं।’’
‘‘अच्छा, तो ऐसा करो, तुम हमारे साथ चलो। पश्चात् हमको स्टेशन तक भी छोड़ आना।’’
रायसाहब सिन्हा के आने तक वे बैठे रहे। चार बजे के लगभग वे आये। रामाधार को उनके और लक्ष्मीदेवी से छुट्टी लेते-लेते आधा घंटा लग गया।
पण्डित शिवदत्त दफ्तर से लौट रहा था, जब कि इनका इक्का वहाँ आ खड़ा हुआ। वह भीतर जाते-जाते रुक गया। उसने अपनी लड़की, दामाद और नाती को आते देखा तो उनको आदर से भीतर ले जाकर पूछने लगा, ‘‘सुनाओ रामाधार, कैसे हो? बच्चे कैसे हैं?’’
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