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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


उसके पिता ठाकुर भक्तसिंह अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हें घर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था; किन्तु भक्तसिंह जिन इरादों से यहाँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उलटी हानि यह हुई कि देहातों में जो भाजी-साग, उपले, ईंधन मुफ्त मिल जाते थे, यहाँ बन्द हो गये। यहाँ सबसे पुराना घराव था। किसी को न दबा सकते थे। न सता सकते थे। इस दुरवस्था में जगतसिंह की हथ-लपकियाँ बहुत अखरतीं। उन्होंने कितनी बार उसे बड़ी निर्दयता से पीटा। जगतसिंह भीमकाय होने पर भी चुपके से मार खा लिया करता था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल भी न सकते, पर जगतसिंह इतना सीनाजोर न था। हाँ, मार-पीट, घुड़की, धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।

जगतसिंह ज्योंही घर में कदम रखता, चारों ओर से काँव-काँव मच जाती—माँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहने गालियाँ देने लगतीं, मानों घर में कोई साँड़ घुस आया हो। बेचारा उल्टे पाँव भागता। कभी-कभी दो-दो तीन-तीन दिन भूखा रह जाता। घरवाले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज्ज बना दिया था। कष्टों के ज्ञान से वह हतास हो गया था। जहाँ नींद आ जाती, वहाँ पड़ा रहता; जो कुछ मिल जाता वही खा लेता।

ज्यों-ज्यों घरवालों को उसकी चोर कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने भर तक उसकी दाल न गली। चरसवाले के कई रुपये चढ़ गये। गाँजे वाले ने धुँआधार तकाजे करने शुरु किए। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत का निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झाँक में रहता; पर घात न मिलती थी। आखिर एक दिन बिल्ली के भागों छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखाने से चले, तो एक बीमा रजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाय, किन्तु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकलने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पैसों के लोभ से जेब टटोली तो लिफाफा मिल गया, उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुराकर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा लिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हैं, तो कदाचित वह न छूता; लेकिन जब उसने लिफाफा फाड़ डाला तो उसमें नोट निकल पड़े तो वह बड़े संकट में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफाफा गला फाड़कर उसके दुष्कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी की-सी हो गई, जो चिड़ियों का शिकार करने जाय और अनजान में किसी आदमी पर निशाना मार दे! उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, दुःख था, पर उस भूख का दंड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।

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