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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


कल्याणी दूर ही से खड़े-खड़े बोली-कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबूजी के पास गई थी।

सूर्य–तुम तली दई, मुधे अतेले दर लदता ता। तुम त्यों तली दई तीं, बताओ?

यह कहकर बच्चे ने गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला दिये। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातृ-स्नेह के सुधा प्रवाह से उसका संतप्त हृदय परिप्लावित हो गया। हृदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गये थे, फिर हरे हो गये। आँखें सजल हो गयीं। उसने बच्चे को गोद उठा लिया और छाती से लगाकर बोली-तुमने पुकार क्यों न लिया, बेटा?

सूर्य–पुतालता तो ता, तुम थुनती न तीं, बताओ अब तो कबी न दाओगी।

कल्याणी–नहीं भैया, अब नहीं जाऊँगी।

यह कहकर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। माँ के हृदय से लिपटते ही बालक निःशंक होकर सो गया, कल्याणी के मन में संकल्प होने लगे, पति की बातें याद आतीं तो मन होता-घर को तिलांजलि देकर चली जाऊं। लेकिन बच्चों का मुँह देखती, तो वात्सल्य से चित्त गद्गद हो जाता है। बच्चों को किस पर छोड़कर जाऊँ? मेरे इन लालों को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे? कौन प्रातः काल इन्हें दूध और हलवा खिलायेगा, कौन इनकी नींद सोयेगा, इनकी नींद जागेगा? बेचारे कौड़ी के तीन हो जायेंगे। नहीं प्यारों, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी। तुम्हारे लिए सब कुछ सह लूँगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खरी-खोटी, घुड़की-झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूँगी।

कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी; पर बाबू साहब को नींद न आई। उन्हें चोट करने वाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थीं। उफ, यह मिजाज मानो मैं ही इनकी स्त्री हूँ। बात मुँह से निकालनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूँ। घर में अकेली यह रहें और बाकी जितने अपने बेगाने हैं, सब निकाल दिये जायँ। जला करती हैं। मनाती हैं कि यह किसी तरह मरें तो मैं अकेली आराम करूँ। दिल की बात मुँह से निकल ही आती है, चाहे कोई कितनी ही छिपाये। कई दिन से देख रहा हूँ ऐसी जली-कटी सुनाया करती हैं। मैके का घमण्ड होगा, लेकिन वहाँ कोई भी न पूछेगा, अभी सब आवभगत करते हैं, जब जाकर सिर पड़ जायँगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा। रोती हुई आयेंगी। वाह रे घमण्ड, सोचती हैं-मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूँ। अभी चार दिन को कहीं चला जाऊं तो मालूम हो जायेगा, सारी शेखी किरकिरी हो जायेगी। एक बार इनका घमण्ड तोड़ ही दूँ।

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