उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
मोटे–ऐसा न कहिए सरकार! वकील साहब नहीं तो क्या आप तो हैं। आप ही उनके पिता तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है! आपके हृदय के भाव तो कोई जानता नहीं, लोग समझेंगे, वकील साहब का देहांत हो जाने के कारण आप अपने वचन से फिर गये। इसमें आपकी बदनामी है। चित्त को समझाइए और हँसी-खुशी कन्या का पाणिग्रहण कर लीजिए। हाथी मरे तो नौ लाख का। लाख विपत्ति पड़ी है, लेकिन मालकिन आप लोगों की सेवा सत्कार करने में कोई बात न उठा रखेंगी।
बाबू साहब समझ गये कि पंडित मोटेराम कोरे पोथी के ही पंडित नहीं वरन व्यवहार-नीति में भी चतुर हैं। बोले-पंडितजी, हलफ से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है, लेकिन जब ईश्वर को मंजूर नहीं है, तो मेरा क्या बस है? वह मृत्यु एक प्रकार की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है। यह किसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है। विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है कि यह विवाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा में आप ही सोचिए, यह संयोग कहाँ तक उचित है। आप तो विद्वान आदमी हैं। सोचिए जिस काम का आरम्भ ही अमंगल से हो, उसका अंत मंगलमय हो सकता है? नहीं, जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जाती। समधिन साहब को समझाकर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञापालन करने को तैयार हूँ लेकिन उसकी परिणाम अच्छा न होगा। स्वार्थ के वश में होकर मंव अपने परम मित्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता।
इस तर्क ने पंडित जी को निरुत्तर कर दिया। वादी ने वह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया था और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जावब सोच ही रहे थे कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया- अरे तुम सब फिर गायब हो गये-झगड़ू, छकौड़ी, भवानी, गुरदीन, रामगुलाम! एक भी नहीं बोलता, सब-के-सब मर गये। पंडितजी के वास्ते पानी-वानी की फिक्र है? ना जाने इन सबों को कोई कहाँ तक समझाये। अक्ल छू तक नहीं गयी। देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से थके-माँदे चले आ रहे हैं, पर किसी को जरा भी परवाह नहीं। लाओ पानी-वानी रखो। पंडितजी, आपके लिए शर्बत बनवाऊँ या फलाहारी मिठाई मँगवा दूँ।
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