उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
2 पाठकों को प्रिय 364 पाठक हैं |
अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
बाबू साहब ने ये पाँचों नाम कई बार दुहराये, लेकिन यह न हुआ कि पंखा झलनेवाले दोनों आदमी में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते। तीन-चार मिनट के बाद एक काना आदमी खाँसता हुआ आकर बोला-सरकार, ई तना की नौकरी हमार कीन न होई! कहाँ तक उधार-बाढ़ी लै-लै खाई। माँगत-माँगत थेथर होय गयेन।
भाल–बको मत, जाकर कुर्सी लाओ। जब कोई काम करने को कहा गया, तो रोने लगता है। कहिए पण्डितजी, वहाँ सब कुशल है?
मोटेराम–क्या कुशल कहूँ बाबूजी, अब कुशल कहाँ? सारा घर मिट्टी में मिल गया।
इतने में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकर रख दिया और बोला कुर्सी मेज हमारे उठाये नाहीं उठत हैं।
पण्डित जी शर्माते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाय और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया।
भाल–अब और कैसे मिट्टी में मिलेंगे? इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी? बाबू उदयभानुलाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था! क्या दिल था, क्या हिम्मत थी, (आँखें पोंछकर-) मेरा तो जैसे दाहिना हाथ ही कट गया। विश्वास मानिए, जबसे यह खबर सुनी है, आँखों में अँधेरा-सा छा गया है। खाने बैठता हूँ तो कौर मुँह में नहीं जाता। उनकी सूरत आँखों के सामने खड़ी रहती है। मुँह जूठा करके उठ आता हूँ। किसी काम में दिल नहीं लगता। भाई के मरने का रंज भी इससे कम ही होता। आदमी नहीं, हीरा था।
मोटे–सरकार, नगर में अब ऐसा कोई रईस नहीं रहा।
भाल–मैं खूब जानता हूँ पण्डितजी, आप मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाख-दो-लाख में एक होता है। जितना मैं उनका जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो-ही-तीन बार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया और मरते दम तक रहूँगा। आप समधिन साहब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रंज है।
मोटे–आपसे ऐसी ही आशा थी! आप जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन बिना दहेज के पुत्र का विवाह करता है।
|