लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


उसे इस विचार से कितना संतोष होता कि मेरे स्वामी मुझसे प्रसन्न गये, अन्तिम समय तक उनके हृदय में मेरा प्रेम बना रहा। कल्याणी को यह सन्तोष न था। वह सोचती थी-हा! मेरी पचीस बरस की तपस्या निष्फल हो गई। मैं अंत समय अपने प्राणपति के प्रेम से वंचित हो गयी। अगर मैंने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो वह कदापि रात को घर से न जाते। न जाने मन में क्या-क्या विचार आये हों? उनके मनोभावों की कल्पना करके और अपने अपराध को बढ़ा-चढ़ाकर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी। जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती। इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रार मोल लेनी पड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहाँ आठों पहर कचहरी-सी लगी रहती थी, वहाँ अब खाक उड़ती है। वह मेला ही उठ गया। जब खिलानेवाला ही न रहा, तो खानेवाले कैसे पड़े रहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर सभी भांजे-भांजी बिदा हो गये! जिनका दावा था कि हम पानी की जगह खून बहाने वालों में हैं, वे ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिरकर भी न देखा। दुनिया ही दूसरी हो गयी। जिन बच्चों को देखकर प्यार करने को जी चाहता था, उनके चेहरे पर अब मक्खियाँ भिनभिनाती थीं। न जाने वह कांति कहाँ चली गई?

शोक का आवेग कम हुआ तो निर्मला के विवाह की समस्या उपस्थित हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई कि विवाह इस साल रोक दिया जाय। लेकिन कल्याणी ने कहा–इतनी तैयारियों के बाद विवाह को रोक देने से सब किया-धरा मिट्टी में मिल जायगा और दूसरे साल फिर यही तैयारियाँ करनी पड़ेंगी, जिसकी कोई आशा नहीं। विवाह कर ही देना अच्छा है। कुछ लेना-देना तो है ही नहीं। बारातियों के सेवा सत्कार का काफी सामान हो चुका है, विलम्ब करने में हानि-ही हानि-है। अतएव महाशय भालचन्द्र को शोक-सूचना के साथ यह सन्देशा भी भेजा दिया गया। कल्याणी ने अपने पत्र लिखा-

इस अनाथिनी पर दया कीजिए और डूबती हुई नाव को पार लगाइये। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं, किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ हैं। कन्या आपकी हो चुकी है। मैं लोगों के सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूँ, लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा कीजियेगा। मुझे विश्वास है कि आप स्वयं इस अनाथनी की निन्दा न होने देंगे, आदि।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book