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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


वज्रधर ने दोनों आँखों पर हाथ रखकर बताया।

चक्रधर से अब सहा नहीं गया। नाहक अपनी हँसी करा रहे हैं। इस बेसुरेपन पर मुंशी यशोदानन्दन दिल में कितना हँस रहे होंगे। शर्म के मारे वह वहाँ खड़े न रहे सके। घर में चले गए, लेकिन यशोदानन्दन बड़े ध्यान से गाना सुन रहे थे। बीच-बीच में सिर भी हिला देते थे। जब गीत समाप्त हुआ, तो बोले–तहसीलदार साहब, आप इस फ़न के उस्ताद हैं!

वज्रधर–यह आपकी कृपा है, मैं गाना क्या जानूँ। इन्हीं लोगों की संगति में कुछ शुद-बुद आ गया।

झिनकू–ऐसा न कहिए मालिक, हम सब तो आप ही के सिखाए-पढ़ाए हैं।

यशोदा०–मेरा तो जी चाहता है कि आपका शिष्य बन जाऊँ।

वज्रधर–क्या कहूँ, आपने स्वर्गीय पिताजी का गाना नहीं सुना। बड़ा कमाल का गाते थे। कोई उस्ताद उनके सामने मुँह नहीं खोल सकता था। लाखों की ज़ायदाद उसी के पीछे लुटा दी। अब तो इसकी चर्चा ही उठती जाती है।

यशोदा०–अब की न कहिए। आजकल के युवकों में तो गाने की रुचि ही नहीं रही। न गा सकते हैं न समझ सकते हैं। उन्हें गाते शर्म आती है।

वज्रधर–रईसों में भी इसका शौक उठता जाता है।

यशोदा०–पेट के धन्धे से किसी को छुट्टी नहीं मिलती, गाए-बजाए कौन?

झिनकू–(यशोदानन्द से) हुज़ूर को गाने का शौक़ मालूम होता है।

यशोदा०–अजी, जब था, तब था? सितार-वितार की दो-चार गतें बजा लेता था। अब सब छोड़-छाड़ दिया।

झिनकु–कितना ही छोड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे। अबकी आप ही की हो।

यशोदानन्दन ने भी दो-चार बार इनकार करने के बाद काफ़ी की धुन में एक ठुमरी छेड़ दी। उनका गला मँजा हुआ था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त होकर गाया कि सुननेवाले झूम-झूम गए। उनकी सुरीली तान साज में मिल जाती थी। वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बाँध दिया। झिनकू के छक्के छूट गए। मज़ा यह कि साथ-ही-साथ सितार भी बजाते थे। आसपास के लोग आकर ज़मा हो गए। समाँ बँध गया। चक्रधर ने यह आवाज़ सुनी, तो दिल में, यह महाशय भी उसी टुकड़ी के लोगों में हैं, उसी रंग में रँगे हुए। अब झेंप जाती रही। बाहर आकर बैठ गए।

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