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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सकीना ने उसकी आवाज़ सुनते ही द्वार खोल दिया। चिराग़ जल रहा था। सकीना ने इतनी देर में आग जलाकर कपड़े सुखा लिए थे और कुरता पाजामा पहने, ओढ़नी ओढ़े खड़ी थी! अमर ने साड़ियाँ खाट पर रख दीं और बोला–‘‘बाजा़र में तो न मिलीं, घर जाना पड़ा। हमदर्दों से परदा रखना चाहिए।’

सकीना ने साड़ियों को लेकर देखा और सकुचाती हुई बोली–‘बाबूजी, आप नाहक साड़ियाँ लाए। अम्माँ देखेंगी, तो जल उठेंगी। फिर शायद आपका यहाँ आना मुश्किल हो जाए। आपकी शराफ़त और हमदर्दी की जितनी तारीफ़ अम्माँ करती थीं, उससे कहीं ज़्यादा पाया। आप यहाँ ज़्यादा आया भी न करें, नहीं ख़्वामख़्वाह लोगों को शुबहा होगा। मेरी वजह से आपके ऊपर कोई शुबहा करे, यह मैं नहीं चाहती।’

आवाज़ कितनी मीठी थी। भाव में कितनी नम्रता, कितना विश्वास। पर उसमें वह हर्ष न था, जिसकी अमर ने कल्पना की थी। अगर बुढ़िया इस सरल स्नेह को सन्देह की दृष्टि से देखे, तो निश्चय ही उसका आना-जाना बन्द हो जायेगा। उसने अपने मन को टटोलकर देखा, उस प्रकार के सन्देह का कोई कारण है? उसका मन स्वच्छ था। वहाँ किसी प्रकार की कुत्सित भावना न थी। फिर भी सकीना से मिलना बन्द हो जाने की सम्भावना उसके लिए असह्य थी। उसका शासित, दलित पुरुषत्व यहाँ अपने प्राकृतिक रूप में प्रकट हो सकता था। सुखदा की प्रतिभा, प्रगल्भता और स्वतन्त्रता, जैसे उसके सिर पर सवार रहती थी। वह उसके सामने अपने को दबाए रखने पर मजबूर था। आत्मा में जो एक प्रकार के विकार और व्यक्तिकरण की आकांक्षा होती है, वह अपूर्ण रहती थी। सुखदा उसे पराभूत कर देती थी, सकीना उसे गौरवान्वित करती थी। सुखदा उसका दफ़्तर थी, सकीना घर। वहाँ वह दास था। यहाँ स्वामी।
उसने साड़ियाँ उठा लीं और व्यथित कण्ठ से बोला– ‘अगर यह बात है, तो मैं इन साड़ियों को लिए जाता हूँ सकीना; लेकिन मैं कह नहीं सकता, मुझे कितना रंज होगा। रहा मेरा आना-जाना, अगर तुम्हारी इच्छा है कि मैं न आऊँ, तो मैं भूलकर भी न आऊँगा; लेकिन पड़ोसियों की मुझे परवाह नहीं है।’

सकीना के करुण स्वर में कहा–‘बाबूजी, मैं आपसे हाथ जोड़ती हूँ, ऐसी बात मुँह से न निकालिए। जब से आप आने-जाने लगे हैं, मेरे लिए दुनिया कुछ और हो गयी है। मैं अपने दिल में एक ऐसी ताकत, ऐसी उमंग पाती हूँ, जिसे एक तरह का नशा कह सकती हूँ; लेकिन बदगोई से तो डरना ही पड़ता है।’

अमर ने उन्मत्त होकर कहा–‘मैं बदगोई से नहीं डरता सकीना, रत्तीभर भी नहीं।

लेकिन एक ही पल में वह समझ गया–मैं बहका जाता हूँ! बोला–‘मगर तुम ठीक कहती हो। दुनिया और चाहे कुछ न करे, बदनाम तो कर ही सकती है।’

दोनों एक मिनट तक शान्त बैठे रहे, तब अमर ने कहा–‘और रूमाल बना लेना। कपड़ों का प्रबन्ध भी हो रहा है। अच्छा अब चलूँगा। लाओ, साड़ियाँ लेता जाऊँ।’

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