उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मुन्नी ने अशान्त भाव से कहा–‘मैं उनसे नहीं मिलना चाहती बाबूजी कभी नहीं। उनके मेरे सामने आते ही मारे लज्जा के मेरे प्राण निकल जायेंगे। मैं कह सकती हूँ, मैं मर जाऊँगी। आप मुझे जल्दी से ले चलिए। अपने बालक को देखकर मेरे हृदय में मोह की ऐसी आँधी उठेगी कि मेरा सारा विवेक और विचार उसमें तृण के समान उड़ जाएगा। उस मोह में मै भूल जाँऊगी कि मेरा कलंक उनके जीवन का सर्वनाश कर देगा। मेरा मन न जाने कैसा हो रहा है। आप मुझे जल्दी यहाँ से ले चलिए। मैं उस बालक को देखना नहीं चाहती, मेरा देखना उसका विनाश हो।’
शान्तिकुमार ने मोटर चला दी, पर दस-बीस गज़ ही गये होंगे कि पीछे से मुन्नी का पति बालक को गोद में लिए दौड़ता हुआ’ मोटर रोको!’ मोटर रोको!’ पुकारता चला आ रहा था। मुन्नी की उस पर नज़र पड़ी। उसने मोटर की खिड़की से सिर निकालकर हाथ से मना करते हुए चिल्लाकर कहा– ‘नही, नहीं, तुम जाओ मेरे पीछे मत आओ! ईश्वर के लिए मत आओ!
फिर उसने दोनों बाँहें फैला दी, मानो बालक को गोद में ले रही हो और मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।
मोटर तेज़ी से चली जा रही थी, युवक ठाकुर बालक को लिए खड़ा रो रहा था और कई हज़ार स्त्री-पुरुष मोटर की तरफ़ ताक रहे थे।
१३
मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फ़ानन में सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था– ‘जज साहब की स्त्री ने पति से लड़कर फै़सला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थीं। स्त्री जब किसी बात पर अड़ जाए, तो पुरुष कैसे ‘नहीं’ कर दे?’ कुछ लोगों का कहना था–‘सरकार ने जज साहब को हुक्म देकर यह फै़सला कराया है, क्योंकि भिखारिन को सज़ा देने से शहर में दंगा हो जाने का भय था।
‘अमरकान्त उस समय भोज के संरजाम करने में व्यस्त था, पर यह ख़बर पा ज़रा देर के लिए सब कुछ भूल गया और इस फैसले का सारा श्रेय खु़द लेने लगा। भीतर जाकर रेणुका देवी से बोला–‘आपने देखा अम्माँजी, मैं कहता था न, उसे बरी कराके दम लूँगा, वही हुआ। वकीलों और गवाहों के साथ कितनी माथापच्ची करनी पड़ी है कि मेरा दिल ही जानता है।’ बाहर आकर मित्रों से और सामने के दुकानदारों से भी उसने यही डींग मारी।
एक मित्र ने कहा–‘औरत है बड़ी धुन की पक्की। शौहर के साथ न गयी, न गयी! बेचारा पैरों पड़ता रह गया।’
अमरकान्त ने दार्शनिक विवेचना के भाव से कहा– ‘जो काम खुद न देखो, वही चौपट हो जाता है। मैं तो इधर फँस गया। उधर किसी से इतना भी न हो सका कि उस औरत को समझाता। मैं होता, तो मज़ाल थी कि वह यों चली जाती। मैं जानता कि यह हाल होगा, तो सब काम छोड़कर जाता और उसे समझाता। मैंने तो समझा डॉक्टर साहब और बीसों ही आदमी हैं, मेरे न रहने से ऐसा क्या घी का घड़ा लुढ़का जाता है, लेकिन वहाँ किसी को क्या परवाह! नाम तो हो गया। काम हो या जहन्नुम में जाए!’
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