उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
एक मिनट तक दोनों थके हुए योद्धाओं की भाँति दम लेते रहे। तब अमरकान्त ने कहा–‘नैना पुकार रही है।’
‘मैं तो तभी चलूँगी, जब तुम वह वादा करोगे।’
अमरकान्त ने अविचल भाव से कहा–‘तुम्हारी खातिर से कहो वादा कर लूँ, पर मैं उसे पूरा नहीं कर सकता। यही हो सकता है कि मैं घर की किसी बात से सरोकार न रखूँ।’
सुखदा निश्चयात्मक रूप से बोली–‘यह इससे कहीं अच्छा है कि रोज़ घर में लड़ाई होती रहे। जब तक इस घर में हो, इस घर की हानि-लाभ का तुम्हें विचार करना पड़ेगा।’
अमर ने अकड़कर कहा–‘मैं आज इस घर को छोड़ सकता हूँ।’
सुखदा ने बम-सा फेंका–‘और मैं?’
अमर विस्मय से सुखदा का मुँह देखने लगा।
सुखदा ने उसी स्वर में फिर कहा–‘इस घर में मेरा नाता तुम्हारे आधार पर है। जब तुम इस घर में न रहोगे, तो मेरे लिए यहाँ क्या रखा है? जहाँ तुम रहोगे, वहीं मैं भी रहूँगी।’
अमर ने संशयात्मक स्वर में फिर कहा–‘तुम अपनी माता के साथ रह सकती हो।’
‘माता के साथ क्यों रहूँ?’ मैं किसी की आश्रित नहीं रह सकती। मेरा दुख-सुख तुम्हारे साथ है। जिस तरह रखोगे, उसी तरह रहूँगी। मैं भी देखूँगी, तुम अपने सिद्धान्तों के कितने पक्के हो। मैं प्रण करती हूँ कि तुमसे कुछ न मांगूँगी। तुम्हें मेरे कारण ज़रा भी कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं ख़ुद भी कुछ पैदा कर सकती हूँ, थोड़ा मिलेगा, थोड़े में गुज़र कर लेंगे; बहुत मिलेगा तो पूछना ही क्या। जब एक दिन में हमें अपनी झोंपड़ी बनानी ही है तो क्यों न अभी से हाथ लगा दें। तुम कूएँ से पानी लाना, मैं चौका–बरतन कर लूँगी। जो आदमी एक महल में रहता है, वह एक कोठरी में भी रह सकता है। फिर कोई धौंस तो न जमा सकेगा।’
अमरकान्त पराभूत हो गया। उसे अपने विषय में तो कोई चिन्ता नहीं थी; लेकिन सुखदा के साथ यह अत्याचार कैसे कर सकता था?
खिसियाकर बोला–‘वह समय अभी नहीं आया है सुखदा!’
|