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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


यही काँटा था, जो अमरकान्त के हृदय में चुभ रहा था।

सुखदा के पास जवाब तैयार था–‘तुम्हें भी तो अपनी सिद्धान्त अपने बाप से ज़्यादा प्यारा है? उन्हें तो मैं कुछ नहीं कहती। अब साठ बरस की उम्र में उन्हें उपदेश नहीं दिया जा सकता। कम-से-कम तुमको यह अधिकार नहीं है। तुम्हें धन काटता हो; लेकिन मनस्वी वीर पुरुषों ने सदैव लक्ष्मी की उपासना की है। संसार को पुरुषार्थियों ने ही भोगा है और हमेशा भोगेंगे। त्याग गृहस्थों के लिए नहीं, संन्यासियों के लिए है। अगर तुम्हें त्यागव्रत लेना था तो विवाह करने की ज़रूरत न थी, सिर मुंडाकर किसी साधु-सन्त के चेले बन जाते। फिर मैं तुमसे झगड़ने न आती। अब ओखली में सिर डालकर तुम मूसलों से नहीं बच सकते। गृहस्थी के चरखे में पड़कर बड़ों-बड़ों की नीति भी स्खलित हो जाती है। कृष्ण और अर्जुन तक को एक नये तर्क की शरण लेनी पड़ी।’

अमरकान्त ने इस ज्ञानोपदेश का जवाब देने की ज़रूरत न समझी। ऐसी दलीलों पर गम्भीर विचार किया ही न जा सकता था। बोला–‘तो तुम्हारी सलाह है कि संन्यासी हो जाऊं।’

सुखदा चिढ़ गयी। अपनी दलीलों का यह अनादर न सह सकी। बोली–‘कायरों को इसके सिवाय और सूझ ही क्या सकता है। धन कमाना आसान नहीं है। व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़े, तो सारा संन्यास भूल जाए। किसी भले आदमी के द्वार पर जाकर पड़े रहने के लिए बल, बुद्धि, विद्या, साहस किसी की भी ज़रूरत नहीं। धनोपार्जन के लिए ख़ून जलाना पड़ता है; माँस सुखाना पड़ता है। सहज काम नहीं है धन कहीं पड़ा नहीं है कि जब चाहे बटोर लाए।’

अमरकान्त ने उसी विनोद भाव से कहा–‘मैं तो दादा को गद्दी पर बैठे रहने के सिवाय और कुछ करते नहीं देखता। और भी जो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार हैं, उन्हें भी फूलकर कुप्पा होते ही देखा है। रक्त और माँस तो मज़दूर ही जलाते हैं। जिसे देखो कंकाल बना हुआ है।’

सुखदा ने कुछ जवाब न दिया। ऐसी मोटी अक्ल के आदमी से ज़्यादा बकवास करना व्यर्थ था।

नैना ने पुकारा–‘तुम क्या करने लगे भैया! आते क्यों नहीं? पकौड़ियाँ ठण्डी हुई जाती हैं।’

सुखदा ने कहा–‘तुम जाकर खा क्यों नहीं लेते? बेचारी ने दिनभर तैयारियाँ की हैं।’

‘मैं तो तभी जाऊँगा, जब तुम भी चलोगी।’

‘वादा करो कि फिर दादाजी से लड़ाई न करोगे।’

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