उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
काले खाँ फिर हँसा–‘चोरी किसे कहते हैं राजा, यह तो अपनी खेती है। अल्लाह ने सबके पीछे लगा दिया है। कोई नौकरी करके लाता है, कोई मजूरी करता है, कोई रोज़गार करता है, देता सबको वही ख़ुदा है। तो फिर निकालो रुपये, मुझे देर हो रही है। इन लाल पगड़ीवालों की बड़ी खातिर करनी पड़ती है भैया, नहीं एक दिन काम न चले।’
अमरकान्त को यह व्यापार इतना जघन्य जान पड़ा कि जी में आया काले खाँ को दुत्कार दे। लाला समरकान्त ऐसे समाज के शत्रुओं से व्यवहार रखते हैं, यह ख्याल करके उसके रोएँ खड़े हो गये। उसे उस दुकान से, उस मकान से, उस वातावरण से, यहाँ तक कि स्वयं अपने आप से घृणा होने लगी। बोला–‘मुझे इस चीज़ की ज़रूरत नहीं है, इसे ले जाओ, नहीं मैं पुलिस में इत्तला कर दूँगा। फिर इस दुकान पर ऐसी चीज़ लेकर न आना कहे देता हूँ।’
काले खाँ ज़रा भी विचलित न हुआ बोला–‘यह तो तुम बिलकुल नयी बात कहते हो भैया। लाला इस नीति पर चलते, तो आज महाजन न होते। हज़ारों रुपये की चीज़ तो मैं ही दे गया हूँगा, अँगनू, महाजन, भिखारी, हींगन–सभी से लाला का व्यवहार है। कोई चीज़ हाथ लगी और आँख बन्द करके यहाँ चले आये, दाम लिया और घर की राह ली। इसी दुकान से बाल–बच्चों का पेट चलता है। काँटा निकालकर तौल लो। दस तोले से कुछ ऊपर ही निकलेगा; मगर यहाँ पुरानी जजमानी है, लाओ डेढ़ सौ ही दे दो, अब कहाँ दौड़ते फिरें।’
अमर ने दृढ़ता से कहा–‘मैंने कह दिया मुझे इसकी ज़रूरत नहीं।’
‘पछताओगे लाला, खड़े-खड़े ढाई सौ में बेच लोगे।’
‘क्यों सिर खा रहे हो, मैं इसे नहीं लेना चाहता।’
‘अच्छा लाओ, सौ ही रुपये ही दे दो। अल्लाह जानता है, बहुत बल खाना पड़ रहा है; पर एक बार घाटा ही सही।’
‘तुम व्यर्थ मुझे दिक कर रहे हो। मैं चोरी का माल नहीं लूँगा, चाहे लाख की चीज़ धेले में मिले। तुम्हें चोरी करते शर्म भी नहीं आती। ईश्वर ने हाथ-पांव दिए हैं, खासे-मोटे-ताजे आदमी हो, मज़दूरी क्यों नहीं करते। दूसरों का माल उड़ाकर अपनी दुनिया और आक़बत दोनों खराब कर रहे हो!’
काले खाँ ने ऐसा मुँह बनाया, मानो ऐसी बकवास बहुत सुन चुका है और बोला–‘तो तुम्हें नहीं लेना है?’
‘नहीं।’
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