उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा ने उसके पीले, सूखे मुँह की ओर देखते हुए कहा–‘हाँ, मैंने दो-तीन चक्कर लगाये। अब यह घर कहलाने लायक हो गया; मगर तुम्हारी यह क्या हालत है? बिलकुल पहचानी ही नहीं जाती।’
सकीना ने हँसने की चेष्टा करके कहा–‘मैं तो मोटी–ताज़ी कभी न थी।’
‘इस वक़्त तो पहले से भी उतरी हुई हो।’
सहसा पठानिन आ गयी और यह प्रश्न सुनकर बोली– ‘महीनों से बुख़ार आ रहा है बेटी, लेकिन दवा नहीं खाती। कौन कहे; मुझसे तो बोलचाल बन्द है। अल्लाह जानता है तुम्हारी बड़ी याद आती थी बहूजी; पर आऊँ कौन मुँह लेकर? अभी थोड़ी ही देर हुई, लालाजी भी गये हैं। जुग-जुग जियें। सकीना ने मना कर दिया था; इसलिए तलब लेने न गयी थी। वही देने आये थे। दुनिया में ऐसे-ऐसे ख़ुदा के बन्दे पड़े हुए हैं। दूसरा होता, तो मेरी सूरत न देखता। उनका बसा–बसाया घर मुझ नसीबों जली के कारन उजड़ गया। मगर लाला का दिल वही है वही ख़याल है, वही परवरिश की निगाह है। मेरी आँखों पर न जाने क्यों परदा पड़ गया था कि मैंने भोले-भाले लड़के पर वह इलज़ाम लगा दिया। खु़दा करे, मुझे मरने के बाद कफ़न भी न नसीब हो! मैंने इतने दिनों बड़ी छानबीन की बेटी! सभी ने मेरी लानत-मालमत की। इस लड़की ने तो मुझसे बोलना छोड़ दिया। खड़ी तो है; पूछी। ऐसी-ऐसी बातें कहती है कि कलेजे में चुभ जाती हैं। ख़ुदा सुनवाता है, तभी तो सुनती हूँ, वैसा काम न किया होता, तो क्यों सुनना पड़ता। उसे अँधेरे में इसके साथ देखकर मुझे शुबहा हो गया और जब उस ग़रीब ने देखा कि बेचारी औरत बदनाम हो रही है, तो उसकी ख़ातिर अपना धरम देने को भी राज़ी हो गया। मुझे निगोड़ी को उस गुस्से में यह ख़याल भी न रहा कि अपने ही मुँह तो कालिख लगा रही हूँ।’
सकीना ने तीव्र कण्ठ से कहा–‘अरे, हो तो चुका, अब कब तक दुखड़ा रोए जाओगी। कुछ और बातचीत करने दोगी या नहीं?’
पठानिन ने फ़रियाद की–‘इसी तरह मुझे झिड़कती रहती है बेटी, बोलने नहीं देती। पूछो, तुमसे दुखड़ा न रोऊँ, तो किसके पास रोने जाऊँ?’
सुखदा ने सकीना से पूछा–‘अच्छा, तुमने अपनी वसीक़ा लेने से क्यों इनकार कर दिया था? वह तो बहुत पहले से मिल रहा है।’
सकीना कुछ बोलना ही चाहती थी कि पठानिन फिर बोली–‘इसके पीछे मुझसे लड़ा करती है बहू। कहती है, क्यों किसी की खै़रात लें? यह नहीं सोचती कि उसी से तो हमारी परवरिश हुई है। बस, आजकल सिलाई की धुन है। बारह-बारह बजे रात तक बैठी आँखें फोड़ती रहती है। ज़रा सूरत देखो, इसी से बुख़ार भी आने लगा है, पर दवा के नाम से भागती है। कहती हूँ जान रखकर काम कर, कौन लाव–लश्कर खाने वाला है; लेकिन यहाँ तो धुन है, घर भी अच्छा हो जाये, सामान भी अच्छे बन जायें। इधर काम अच्छा मिला है, और मजूरी भी अच्छी मिल रही है; मगर सब इसी टीम-टाम में उड़ जाती है। यहाँ से थोड़ी दूर पर एक ईसाइन रहती है, वह रोज़ सुबह को पढ़ाने आती है। हमारे ज़माने में तो बेटा सिपारा और रज़ा–नमाज़ का रिवाज़ था। कई जगह से शादी के पैग़ाम आये...’
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