उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘यह तो मैं बिल्कुल भूल गया भाभी। जो बुलाकर प्रेम से एक रोटी खिला दे वही मेरा भाई है।’
‘तो कल मुझे आ लेने देना। ऐसा न हो, चुपके से भाग जाओ।’
अमरकान्त ने झोंपड़ी में आकर देखा, तो बुढ़िया चूल्हा जला रही थी। गीली लकड़ी, आग न जलती थी। पोपले मुँह में फूँक भी न थी। अमर को देखकर बोली–‘तुम यहाँ धुएँ में कहाँ आ गये बेटा, जाकर बैठो, यह चटाई उठा ले जाओ।’
अमर ने चूल्हे के पास जाकर कहा–‘तू हट जा, मैं आग जलाये देता हूँ।
सलोनी ने स्नेहमय कठोरता से कहा–‘तू बाहर क्यों नहीं जाता? मरदों का तो इस रसोई में घुसना अच्छा नहीं लगता।’
बुढ़िया डर रही थी कि कहीं अमरकान्त दो प्रकार के आटे न देख ले। शायद वह उसे दिखाना चाहती थी कि मैं भी गेहूँ का आटा खाती हूँ। अमर यह रहस्य क्या जाने। बोला–‘अच्छा तो निकाल दे, मैं गूँध दूँ।’
सलोनी ने हैरान होकर कहा–‘तू कैसा लड़का है भाई! बाहर जाकर क्यों नहीं बैठता?’
उसे वह दिन याद आये जब उसके अपने बच्चे उसे अम्माँ कहकर घेर लेते थे और वह उन्हें डाँटती थी। उस उजड़े हुए घर में आज एक दिया जल रहा था; पर कल फिर वही अँधेरा हो जायेगा। वही सन्नाटा। इस युवक की ओर क्यों उसकी इतनी ममता हो रही थी? कौन जाने कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा; पर यह जानते हुए भी अमर का सरल बालकों का-सा निष्कपट व्यवहार, उसका बार-बार घर में आना और हरेक काम करने को तैयार हो जाना, उसी सूखी मातृ-भावना को सींचता हुआ-सा जान पड़ता था, मानो अपने ही सिधारे हुए बालकों की प्रतिध्वनि कहीं दूर से उनके कानों में आ रही है।
एक बालक लालटेन लिये कन्धे पर एक दरी रखे आया और दोनों चीज़ें उनके पास रखकर बैठ गया। अमर ने पूछा–‘दरी कहाँ से लाये?’
‘काकी ने तुम्हारे लिए भेजी है। वही काकी, जो अभी आयी थीं।’
अमर ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा– ‘अच्छा तुम उनके भतीजे हो! तुम्हारी काकी कभी तुम्हें मारती तो नहीं?’
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