उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर इस तरह बैठा रहा, मानो कोई पागल बक रहा है। आज तुम कितनी चिकनी-चुपड़ी बातें करके मुझे फँसाना चाहते हो? मेरी ज़िन्दगी तुम्हीं ने ख़राब की। तुम्हारे ही कारण मेरी यह दशा हुई। तुमने मुझे कभी अपने घर को घर न समझने दिया। तुम मुझे चक्की का बैल बनाना चाहते हो। वह अपने बाप का अदब उतना न करता था, जितना दबता था, फिर भी उसकी कई बार बीच में टोकने की इच्छा हुई। ज्योंही लालाजी चुप हुए, उसने धृष्टता के साथ कहा–‘दादा, आपके घर में मेरा इतना जीवन नष्ट हो गया, अब मैं उसे और नष्ट नहीं करना चाहता। आदमी का जीवन केवल खाने और मर जाने के लिए नहीं होता, न धन-संचय उसका उद्देश्य है। जिस दशा में मैं हूँ, वह मेरे लिए असहनीय हो गयी है। मैं एक नये जीवन का सूत्रपात करने जा रहा हूँ, जहाँ मज़दूरी लज्जा की वस्तु नहीं, जहाँ स्त्री पति को केवल नीचे घसीटती, उसे पतन की ओर नहीं ले जाती; बल्कि उसे जीवन में आनन्द और प्रकाश का संचार करती है। मैं रूढ़ियों और मर्यादाओं का दास बनकर नहीं रहना चाहता। आपके घर में मुझे नित्य बाधाओं का सामना करना पड़ेगा और उसी संघर्ष में मेरा जीवन समाप्त हो जायेगा। आप ठण्डे दिल से कह सकते हैं, आपके घर में सकीना के लिए स्थान है?’
लालाजी ने भीत नेत्रों से देखकर पूछा–‘किस रूप में?’
‘मेरी पत्नी के रूप में!’
‘नहीं, एक बार नहीं और सौ बार नहीं!’
‘तो फिर मेरे लिए भी आपके घर में स्थान नहीं है।’
‘और तो तुम्हें कुछ नहीं कहना है?’
‘जी नहीं!’
लालाजी कुर्सी से उठकर द्वार की ओर बढ़े। फिर पलटकर बोले–बता सकते हो, कहाँ जा रहे हो?
‘अभी तो कुछ ठीक नहीं है।’
‘जाओ, ईश्वर तुम्हें सुखी रखें। अगर कभी किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो मुझे लिखने में संकोच न करना।’
‘मुझे आशा है, मैं आपको कोई कष्ट न दूँगा।’
लालाजी ने सजल नेत्र होकर कहा–‘चलते-चलते घाव पर नमक न छिड़को, लल्लू। बाप का हृदय नहीं मानता। कम-से-कम इतना तो करना कि कभी-कभी पत्र लिखते रहना। तुम मेरा मुँह न देखना चाहो; लेकिन मुझे कभी-कभी आने-जाने से न रोकना। जहाँ रहो, सुखी रहो, यही मेरा आशीर्वाद है।
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