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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


अब गेरीबाल्डी की आवश्यकता अनुभव की गई, और प्रधान मन्त्री केयूर ने अप्रैल १८३९ ई० में उसे देश की सहायता करने को निमन्त्रित किया। गेरीबाल्डी तुरन्त अपने शान्तिकुटीर से निकल पड़ा। छोटे-बड़े सबके हृदयों में उसके लिए इतना आदर था, और वह अपनी नीयत का इतना सच्चा और भला था कि दूसरे सैनिक अधिकारी, जो इस विप्लव से स्वार्थ-साधन करने के फेर में थे, उससे बुरा मानने लगे। परन्तु नवयुवक नरेश विक्टर इमानुएल ने, जो गेरीबाल्डी के गुण स्वभाव से भलीभांति परिचित था, उसने कहा—आप जहाँ चाहें जायँ, जो चाहें करें, मुझे केवल इस बात का दुःख है कि मैं मैदान में आपकी बग़ल में रहकर अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता।’

इस प्रकार बादशाह से यथामति कार्य करने का अधिकार पाकर गेरीबाल्डी ने आस्ट्रिया के विरुद्ध उन छोटी-छोटी लड़ाइयों का सिलसिला शुरू किया, जो इतिहास में अपना जोड़ नहीं रखतीं। उसके साथ १७ हज़ार आदमी थे और यह सब नवयुवक स्वयं सेवक थे जिन्होंने देशहित पर अपने प्राणों को उत्सर्ग कर लेने का संकल्प लिया था। उनकी सहायता से उसने कितनी ही लड़ाइयाँ मारीं, कोमो और बरगाओ छीन लिया, और अन्त में उत्तरी इटली से शत्रु को निकाल बाहर किया।

उधर पेडमांट और फ्रांस की संयुक्त सेना ने भी आस्ट्रिया वालों को कई मारकों में हराया और लुंबार्डी छीन लिया, पर जीतों का यह सिलसिला अधिक दिन न चलने पाया। सम्राट नेपोलियन ने पेडमांट का बल अधिक बढ़ते देख, लड़ाई बन्द कर देने का हुक्म दिया। आस्ट्रिया ने भी मौक़ा ग़नीमत जाना और कुछ देर दम ले लेना मुनासिब समझा। गेरीबाल्डी शुरू से कहता आता था कि राष्ट्र बाहरी शक्तियों की सहायता से कभी स्वाधीनता नहीं प्राप्त कर सकता। वह फ्रांस की सहायता स्वीकार करने के एकदम विरुद्ध था, पर पेडमांट सरकार ने उसकी सलाह के खिलाफ काम किया था, और अब उसे अपनी अदूरदर्शिता का फल भुगतना पड़ा।

उस समय थोड़े ही दिनों तक लड़ाई और जारी रहती, तो इटली से आस्ट्रिया की सत्ता की जड़ उखड़ जाती, पर लड़ाई बन्द हो जाने से उसे फिर शक्ति संचय का अवसर मिल गया। अन्त में गेरीबाल्डी ने नाराज़ होकर इस्तीफ़ा दे दिया, पर शाह इमानुएल ने ऐसे नाजुक वक्त में उसका इस्तीफा मंजूर करना मुनासिब न समझा। अतः गेरीबाल्डी ने अपने ही स्वयंसेवकों से स्वतंत्र रूप में, युद्ध जारी रखने का जिम्मा लिया; पर उस पर चौतरफ़ा प्रत्यक्ष रूप में ऐसे दबाव पड़ने लगे कि अन्त में हताश होकर उसने फिर इस्तीफ़ा दे दिया, और अबकी बार वह स्वीकार कर लिया गया, यद्यपि राष्ट्र ने इसका प्रबल विरोध किया।

पर स्वाधीनता के पुजारी और स्वदेश के सच्चे प्रेमी से कब चुप बैठा जाता था ? लेखों और भाषणों से वह जनता को स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए उभारता रहता था। गुप्त रूप से वितरित पर्चों और पुस्तकों के द्वारा उसके राष्ट्रीय भाव उत्तेजित किए जाते, बराबर घोषणाएँ प्रकाशित की जाती थीं, जिनमें उद्देश्य-सिद्धि के साधनों और उपायों पर जोरदार शब्दों में बहस की जाती थी। गेरीबाल्डी का मत था कि जब तक देश में १० लाख बन्दूकें और १० लाख निशानेबाज़ न हो जाएँगे, राष्ट्र स्वाधीन न हो सकेगा। इन घोषणाओं का प्रभाव अन्त में यह हुआ कि अमरीकावालों ने सहायता रूप में चौबीस हजार बंदूकें एक जहाज में लदवाकर गेरीबाल्डी के पास भेजीं। कई हजार नौजवान अपने को राष्ट्र पर कुरबान कर देने को तैयार हो गए और गेरीबाल्डी दो हजार जवानों को लेकर सिसली की ओर चला।

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