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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


‘वर्तमान शासन-प्रणाली का यह परिणाम हो रहा है कि हमारी शारीरिक और मानसिक शक्ति दिन-दिन छीजती जा रही है। हम दैन्य और अपमान का जीवन स्वीकार करने को बाध्य किए जाते हैं। पद-पद पर हमको इस बात की याद दिलाई जाती है कि हम एक दलित जाति के जन हैं। हमारी स्वाधीनता का गला बेदर्दी से घोंटा जा रहा है, और यह सब केवल इसलिए कि वर्तमान शासन-व्यवस्था की नींव और मज़बूत हो जाय। इंग्लैण्ड का हर एक युवक, जिसको ईश्वर ने बुद्धि और उत्साह के गुण प्रदान किए हैं, आशा करता है कि मैं भी किसी न किसी दिन राष्ट्र रूपी जहाज का कप्तान बनूँगा, मैं भी किसी न किसी दिन ग्लैडस्टन का पद और नेलसन का यश प्राप्त करूँगा। यह भावना एक स्वप्न मात्र क्यों न हो, पर उसके उत्साह और उच्चाकांक्षा को उभारती है। वह जी-जान से गुण सीखने और योग्यता बढ़ाने के यत्न में लग जाता है। हमारे देश के अभागे नौजवान ऐसे उत्साहवर्धक स्वप्न नहीं देख सकते। वे ऐसे ऊँचे हवाई महल भी नहीं उठा सकते। वर्तमान शासन-प्रणाली के रहते यह संभव नहीं कि हम उस ऊँचाई तक पहुँच सकें, जिसकी शक्ति और योग्यता प्रकृति ने हमें प्रदान की है। वह नीति बल जो प्रत्येक स्वाधीन जाति का विशेष गुण है हममें लुप्त होता जा रहा है। अन्त में इस स्थिति का शोचनीय परिणाम यही होगा कि हमारी शासन-प्रबन्ध और युद्ध की योग्यता अव्यवहारवश नष्ट हो जाएगी और हमारी जाति का इतना अधःपतन हो जाएगा कि हम लकड़ी काटने और पानी भरने के सिवा और किसी काम के न रह जायँगे।’

कमीशन के सामने गवाही देने के बाद मिस्टर गोखले ने लन्दन और इंग्लैण्ड के दूसरे ज़िलों का भ्रमण आरम्भ किया, जिसमें अपनी ज़ोरदार वक्तृताओं से ब्रिटिश जनता के हृदय में भारत के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करें और देश की स्थिति के विषय में उनकी सोचनीय उपेक्षा तथा अनभिज्ञता को दूर करें। आपके इन सत्प्रयत्नों की दाद ब्रिटिश जनता ने दिल खोलकर की। आपके भाषणों के साथ बड़ी दिलचस्पी दिखाई गई और सब ओर से साधुवाद की वर्षा होने लगी, बधाई के पत्र आने लगे और कुछ दिनों में सब पर आपके वक्तृत्व और विद्वता का सिक्का जम गया। पर उस समय जब आप कृतकार्य होकर भारत लौटनेवाले थे, एक अनिष्ट घटना घटित हुई, जिसके कारण कुछ दिनों तक आपको अपने अनभिज्ञ, नासमझ देशवासियों से लांछित होना, उनके निष्ठुर व्यंग्य-आक्षेपों का निशाना बनना पड़ा।

उन दिनों बम्बई के शासन की बागडोर लार्ड सैंडर्स्ट के हाथों में थी। प्लेग के प्रतिबंध के लिए आपने बड़े कड़े नियम प्रचारित किए थे और उनको काम में लाने वाले अहलकार उन पर हाशिया चढ़ाकर जनता पर अवर्णनीय अत्याचार करते थे। सो जब पूने में इस महामारी का प्रकोप हुआ, सरकारी कर्मचारी उसके प्रतिबंध की धुन में अंधेर मचाने लगे, तो जनता भड़क उठी। शिक्षितजनों को भी अधिकारियों का यह हस्तक्षेप अनुचित जान पड़ा। उन्होंने इसका ज़ोरों से विरोध किया। समाचार पत्रों ने भी उनका साथ दिया। पर नौकरशाही की निद्रा न टूटी। अन्त में दो अँग्रेज़ों—रेंड और आयर्स्ट—को, जो जनता की भी निगाह में इन सारी ज्यादतियों के लिए कारणभूत थे, सरकार की करनी और जनता के क्रोध का फल भुगतना पड़ा।

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