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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है



रणजीत सिंह

भारत के पुराने शासकों में शायद ही कोई ऐसा होगा, जिस पर यूरोपीय ऐतिहासिकों और अन्वेशषकों ने इतने विस्तार के साथ आलोचना की हो, जितना पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह पर। उनके चरित्र और स्वभाव, उनकी न्यायशीलता, उनके शौर्य और पराक्रम, उनकी प्रबंध-पटुता, उनके उत्साह-पूर्ण आतिथ्य-सत्कार और अन्य गुणों तथा विशेषताओं के  संबंध में प्रतिदिन इतनी वार्ताएँ प्रसिद्ध होती थीं, कि यूरोप के मनचले ग्रन्थकारों और पर्यटकों के मन में अपने-आप यह उत्सुकता उत्पन्न हो जाती थी कि चलकर ऐसे विलक्षण और गुण-गरिष्ठ व्यक्ति को देखना चाहिए। और उनमें से जो आता, वह महाराज के सुन्दर गुणों की एक ऐसी गहरी छाप दिल पर लेकर जाता, जो उनकी सराहना में दफ्तर के दफ्तर रँग डालने पर भी तृप्त न होती थी।

सिराजुद्दौला, मीर जाफ़र और अवध के नवाबों का हाल पढ़-पढ़कर यूरोप में आम खयाल हो गया था कि भारत में यह योग्यता नहीं रही कि ऊँचे दरजे के राजनीतिज्ञ और शासक उत्पन्न कर सके। अधिक-से-अधिक वहाँ कभी-कभी लुटेरे सिपाही निकल खड़े होते हैं और बस। पर महाराज रणजीतसिंह के व्यक्तित्व ने इस धारणा का बड़े जोर के साथ खंडन कर दिया, और यूरोपवालों को दिखा दिया कि विभूतियों को उत्पन्न करना किसी विशेष देश या जाति का विशेषाधिकार नहीं है, किंतु ऐसे महिमाशाली पुरुष प्रत्येक जाति और प्रत्येक काल में उत्पन्न होते रहते हैं। और यद्यपि रणजीति सिंह के अनेक चरित्र-लेखकों पर इस सामान्य कुधारणा का असर बना है, और उनके चरित्र अध्ययन करने में वह इस भावना को अलग नहीं रख सके, फिर भी महाराज की अपनी खास खूबियों ने जो कुछ बरबस उनकी लेखनी से लिखवा लिया, वह इस बात को प्रमाणित कर देता है कि १८वीं शताब्दी में नेपोलियन बोनापार्ट को छोड़कर कोई ऐसा मनुष्य उत्पन्न नहीं हुआ। बल्कि उस परिस्थिति को देखते हुए, जिसके भीतर रणजीतसिंह को काम करना पड़ा, कह सकते हैं, कि शायद नेपोलियन में भी वह योग्यताएँ न थीं जो महाराज में एकत्र हो गई थीं।

फ्रांस स्वाधीन देश था और वहाँ के दार्शनिकों ने जन-साधारण में प्रजातंत्र के विचार फैला दिये थे। नेपोलियन को अधिक-से-अधिक इतना ही करना पड़ा कि मौजूद और तैयार मसाले को इकट्ठा कर उससे एक इमारत खड़ी कर ली। इसके विपरीत भारत कई सौ साल से पीसा-कुचला जा रहा था, और रणजीतसिंह को उनसे निबटना पड़ा, जो लम्बे अरसे तक भारत के भाग्य-विधाता रह चुके थे। निस्संदेह, सेनापति रूप में नेपोलियन का पद ऊँचा है, पर शासन-प्रबंध की योग्यता से महाराज रणजीतसिंह उससे बहुत आगे बढ़े हुए हैं। यद्यपि उनका स्थापित किया हुआ राज्य उनके बाद अधिक दिन टिक न सका, पर इसमें स्वयं उनका कोई दोष नहीं। इसकी जिम्मेदार वह आपस की बैर और फूट है, जिसने सदा इसकी दुर्दशा करायी और जिसे महाराज रणजीतसिंह भी दिलों से दूर कराने में सफल न हो सके।

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