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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


इसके कोई महीने भर बाद की बात है। एक दिन मेरे अदालत के ही कमरे में डिक ने आकर मुझे एक तार दिखाया। कैम्बेलपुर के कलक्टर का तार था। उक्त विवरण की लड़की के साथ एक बुड्ढा सिक्ख गिरफ़्तार किया गया है। वह गिरफ़्तार करके होशंगाबाद ही लाया जा रहा है। लड़की ने मुझसे (कलक्टर से) बोलने से इनकार कर दिया है, इससे मैं उसे समझाकर होशंगाबाद न भिजवा सका।

हमें बड़ी खुशी हुई। डिक फौरन ही कैम्बेलपुर जाने को उतावला हो उठा। पर मैंने रोक दिया–‘पहले तो उसे आ जाने दो। देखें, कौन है, कौन नहीं।’

इसके तीसरे रोज मुझे ललिता की एक चिट्ठी मिली। चिट्ठी बहुत संक्षिप्त थी। मैंने अब तक ललिता की कोई चिट्ठी नहीं पायी, कोई मौका ही नहीं आया। लिखा था–
चाचा जी,
पिताजी के बाद बहुत थोड़े दिन तक आप को कष्ट दिया। इसलिए पिता जी के नाते भी और अपने निज के नाते भी, मेरा आप पर बहुत हक है। उसके बदले में आपसे एक बात माँगती हूँ। उसके बाद और कुछ न माँगूगी। समझिए मेरा हक ही निबट जायगा। बाबा गिरफ़्तार कर लिये गये हैं। उन्हें छुड़वाकर घर ही भिजवा दे, खर्च उनके पास न हो तो वह भी दे दें।

आपकी–
ललिता


चिट्ठी में पता नहीं था, और कुछ भी नहीं था। पर ललिता की चिट्ठी मानो ललिता ही बनकर, मेरे हाथों में काँपती-काँपती, अपना अनुनय मनवा लेना चाहती है।

अगले रोज जेल सुपरिटेंडेंट ने मुझे बुलवा भेजा। वही बुड्ढा सिक्ख मेरे सामने हाज़िर हुआ। आते ही धरती पर माथा टेक कर गिड़गिड़ाने लगा–‘राजा जी...’

‘क्यों बुड्ढे, मैंने तुझ पर दया की और तूने शैतानी?’

‘राजा जी’ और ‘हुजूर’ ये ही दो शब्द अदल-बदलकर उसके मुँह से निकलते रहे।

‘अच्छा, अब क्या चाहता है?’

‘हुजूर, जो मर्जी।’

‘मर्जी क्या, तुझे जेल होगा। काम ही ऐसा किया है।’

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